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बात है। अपने जरासे स्वार्थ के लीए वह प्रमाद महान् अनर्थकारी होता है। [परन्तु कितनीक वख्त लोको अधिक अनाज मरते है, वो ऋतु परिवर्तन के कारण आखिर में क्वचित् सड़ जाते है । वो दाने यदि कितनेभी अधिक क्यों न हो, लेकिन उनको काममें न लेना चाहिये । वास्तव में जिस भाँति चाहिये उस भाँति एक मन, दो मन या पाँच मन साफ कर के अच्छा माल लेना ठीक है। परन्तु यदि यह न हो सके और अधिक आवश्कता हो, तो उसे ध्यान पूर्वक, सुरक्षित कीस भाँति से रखना चाहिये? यह खास अनुभत्रियों से पूछ लेना चाहिये। प्रत्येक को सुरक्षित रखने की भिन्न भिन्न रीति है। कितनेक बाजरी, गेहूँ आदि राख में मिलाते हैं। मूंग आदि रेत में दबाते है । कितनेक में पारा भी डाला जाता है। कितनेक को कितनेक स्थान पर एरण्डी का तेल लगाते हैं। कोई कोई स्थान पर चूना भी डालते हैं। किसी में पारे की डलियां डालते हैं। यद्यपि इसमें की कोई भी रिति अन्न के मूळ गुणो के हानि करती है, और इसी रीति से रक्षा करने में न आवे, तो फीर जीवजंतु से सड़ जावे, यह भी मुश्केली होती है।
पारा गुप्त नुकसान करता है । जिस पर एरंडी का तेल लगा हो उस पर यदि जंतु चढ़े तो चिपकर मर जाता है, इस लिये हर प्रकार से सावधानी रखना निहायत जरुरी है । जरुरत अनुसार अच्छा देखकर खरीदना यह आदर्श प्रणाली है। परन्तु यह स्थिति बडे कुटुम्ब में या अनावृष्टि आदि कारणो में
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