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________________ १३५ 1 सोडा, वगैरह जीन्होंकी जो इच्छा होवें को ताजी ब्राह्मणीआ बील सकती है। कहो, कैसी सगवड ? । ओ जैन बन्धुओं ! आर्यो ! यह होटेल वगैरहका प्रचार होनेका सबब अनार्योका परिचय है । और उनके सहवाससें हम लोगभी अनार्य जैसा ही हो जाते है । होटेलो में बनी हुई सब चीजोंकी विवेकपूर्वक तपास करनेमें आवे, तब ही मालुम पडे, वहां, कया हाल है १ । लेकीन वो तकलीफ किन्हों को लेनी है ? "हिन्दु भोजन गृहों में चीजें तैयार हुई वह शुद्ध पवित्र ही होगी. " सबबकी - विवेकका विचार, भक्ष्याभक्ष्यका विचार करे, तो फीर खाना पीना कीस तरहसे हो सके ? जैसे हम विवेक विकल, अर्धदग्ध, जीव्हा इन्द्रियकी रस लंपटतामें क्य क्या अकार्य न कर रहे है ? स्पर्शास्पर्श याने भक्ष्याभक्ष्यका विचार नहि करते भोजन करके आनंदित होते है । अखीर मुसलमान तो क्या लेकीन युरोपीयन होटेलमें से मक्खन, पाउं ( बिस्कीट ) डबलरोटी वगैरह मंगवाके खानेवालों भी क्वचित् मिलनेका संभव है । अफसोस ! यह संस्कार भ्रष्टताका विवेचन करते ही कंपारी पैदा होती है । वैसे कार्यों को करनेवाले यह कलियुगमें बढ रहा है । हमको असे प्राणीओं प्रति अनुकंपाकी दृष्टि होती है । उन्होकुं कैसे बुरे विपाक अनुभवना होगा ? और उन्हों को कैसा कैसा त्रास होगा ? अबतक भी, हे भाइओं ! कुछ समजों, और भ्रष्टतासे अटक जाओ ! ओह जैन युत्रकों ! यह श्रमण भगवंत श्रीमहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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