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________________ १०८ तक बहुत कम परिचय रखना। उसमें भी द्वादश व्रतधारी तथा विरतिवालोंने तो एसी जगह पर जाना ही नहीं चाहिये । कभी जाना भी पडे, तो पूरा ध्यान रखना । बावीस अभक्ष्यका जो यह वर्णन दिया है, उसको बराबर समझ कर मनन करना। तथा जिनेंद्र भगवानने मना किया है, उनका त्याग करके परमात्माकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। भाईयों ! आप नित्य पूजा करते है, उसके पूर्व अपने मस्तक पर खुद तिलक करते है । उसका मतलब यह है कि" हे भगवन् ! आपकी आज्ञा मैं शिरोधार्य करता हूँ।" उनकी आज्ञाका कभी भी उल्लंघन करना नहीं और उसे सादररीतिसे पालन करना, यही धर्म है। यह अभक्ष्यों का वर्जन से असंख्य और अनंत जीवों को अभयदान मिलता है। शास्त्रमें कहा है कि-एक जीव को अभयदान, और मेरु जितना सुवर्ण का दान दो, इनमें अभयदान का फल बढेगा । जो पुण्यात्मा अनंत जीवों को अभयदान देता है, वो पाप फल नहीं पाता है ! अर्थात् सब अच्छे फल पाता है। इसलिये चतुर भाईयों! मोक्ष प्राप्तिका यह सरल साधन है-" भगवान् के वचनका आदर व पालन करना।" इसके बारेमें अजित शांतिस्तवकी अन्तिम गाथामें कहा है कि: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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