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________________ ७२ तो बाकी की शेष चार इन्द्रियां कभी भी वशमें होने की नहीं। इससे रसनेन्द्रिय जो कि प्रवल है उसको कवज करना चाहिये। चतुर भ्राताओं ! देखिये, श्रीमहावीर भगवान्ने साड़ाबार वर्ष में सिर्फ ३४९ दिन भोजन किया। शेषकाल में तपश्चर्या की है। वैसे आत्मशूर महापुरुषो ही आत्मा का कल्याण कर सिद्धि महल में पहोंच गये है। रसनेन्द्रिय को वशवर्ती होकर पौद्गलिक सुख में मग्न होते हुए अपन सब लोग चतुर्गति में भ्रमण कर रहे हैं, और कष्ट का अनुभव कर रहे है । तथापि हे चेतन ! अनादिकाल की कुवासना क्यों नहीं मिटाता हो ? अब तो चेत!चेत ! श्री जैनशासन फिर फिर मिलने की चोकस खात्री नहीं है ! वास्ते इसी शरीर से कुच्छ अपना जीवन साफल्य कर ले ! कर ले! ६. मुरब्बा-"केरी का मुरब्बा-तिनों ऋतु में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श न फिरे बहां तक भक्ष्य है, अन्यथा अभक्ष्य हैं।" ऐसा सेनप्रश्नादिक में कहा है। तथापि अचार के लिये रखनेकी, निकालनेकी जैसी जुक्ति बतलाई है, वैसी सब जुक्ति मुरब्बा के लिये भी रखनी चाहिये. चोमासाकी मोसममें मुरब्बे में लीलन-फूलनहोन जावे, जैसी संभाल-जुक्ति से और योग्य स्थल में रखना चाहिये. मुरब्बा Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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