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३५ अलबेली आम्रपाली
प्रारम्भ उस आग को झेल नहीं सकता तो व्यक्ति का जीवन नष्ट हो जाता है । अन्यान्य राजकुमार भी मंरेय के पुजारी थे । बिंबिसार माता के संस्कारों के कारण इन व्यसनों से बच गया था ।
श्रेणिक गुरुचरणों से चलकर सीधा पिता के पास गया, चरणों में नमस्कार किया और अपनी साधना की बात बताई। प्रसेनजित पुत्र की सिद्धि पर प्रसन्न हुआ और बोला -- " वत्स ! गुरुदक्षिणा के रूप में दस सहस्र स्वर्णमुद्राएं, पोशाक और मुक्तामाला आचार्य को भेंट कर देना ।"
fafaसार ने प्रसन्नदृष्टि से पिता की ओर देखा ।
उस समय त्रैलोक्यसुन्दरी की एक विश्वस्त दासी वहां से दौड़ी और रानी के पास पहुंचकर कहा – “महादेवी ! कुमार श्रेणिक आ गए हैं।"
उस समय रानी अपनी विश्वस्त सखी से बात कर रही थी । श्रेणिक के आगमन की सूचना पाकर रानी ने अपनी सखी से कहा--"अब तुझे जो करना है उसकी ओर ध्यान लगा ।"
"आप निश्चिन्त रहें। आज रात को ही मैं ।"
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"सावधान रहना । किसी को इस घटना के कारण की कल्पना भी नहीं होनी चाहिए ।"
"महादेवि ! मैं किसी कच्चे गुरु की शिष्या नहीं हूं ।"
रानी प्रसन्नता से झूम उठी ।
पर उसे यह ज्ञात नहीं था कि जो दूसरों का अनिष्ट करना चाहता है, वह सबसे पहले अपने अनिष्ट को न्यौता देता है ।
गड्ढा खोदने वाला, सबसे पहले स्वयं उस गड्ढे में गिरता है ।
८. आग लग गई
रात्रि का प्रथम प्रहर बीत चुका था। मगधेश्वर भोजन आदि से निवृत्त होकर अपने मंत्रणा गृह में अपने मन्त्रियों के साथ चर्चा-विचारणा कर रहे थे । चर्चा का मुख्य विषय था- मगध और वैशाली के मध्य गंगा के तट से दस कोश की दूरी पर एक वन- प्रदेश था । वह अत्यन्त सघन और छोटी-छोटी पहाड़ियों से समृद्ध था । विशेष बात यह थी कि उस वन- प्रदेश पर राक्षसराज शंबुक का आधिपत्य था । उस वन- प्रदेश को लोग शंबुक वन कहने लगे । वह शंबुक कुछेक राक्षस परिवारों के साथ मध्य में स्थित पर्वतीय क्षेत्र में रहता था । वह अत्यन्त पराक्रमी और शक्ति सम्पन्न था। शंबुक की आयु ५० वर्ष की थी। शंबुक की साधना भी भव्य थी । आसपास के राज्य वालों ने उसको पराजित करने के अनेक प्रयत्न किए, पर सब व्यर्थ, क्योंकि शंबुक के मायावी युद्ध के समक्ष कोई नहीं टिक पाता था। शंबुक अपनी सीमा से सन्तुष्ट था। वह सीमा को बढ़ाना