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४२ अलबेली आम्रपाली
और पति की मृत्यु के पश्चात् श्यामा ने अपने एक समवयस्क दास को अपनी शय्या का साथी बना लिया था। कंगाल दास अपने आपको धन्य-धन्य मानने लगा।
दूसरे दिन संध्या के समय श्यामा रानी त्रैलोक्यसुन्दरी के पास आयी। उस समय रानी स्नानगृह में थी। वह अत्यन्त प्रसन्न और हर्षित थी, क्योंकि अपने इकलौते लाड़ले राजकुमार को मगध का अधिपति बनाने का स्वप्न आज सिद्धि की ओर अग्रसर होने वाला था।
श्यामा रानी की प्रतीक्षा करती हुई एक कक्ष में बैठ गयी। एक परिचारिका ने रानी से श्यामा के आगमन की बात कही।
रानी प्रसन्न हुई। वस्त्रों को धारण कर वह अपने विशेष खंड में गयी और श्यामा को बुला भेजा।
श्यामा खंड में प्रविष्ट हुई। रानी की दीर्घ और खुली केशराशि बादलों की भांति शोभित हो रही थी। उसने रानी को नमस्कार किया।
रानी ने उसको पास बुलाकर पूछा-"तेरा दास ?"
"ठीक समय पर काम कर देगा। आप संशय न करें । महाराज को कोई आपत्ति तो नहीं होगी ?"
"पगली ! मेरे इशारे पर चलने वाले महाराज को क्या आपत्ति हो सकती
"समझी, आप निश्चित रहें। समय पर काम हो जाएगा", श्यामा ने कहा।
रानी बोली-"आग में कहीं श्रेणिक न जल जाएं । यह चिन्ता मुझे सताती है । हमारी इससे बहुत बड़ी बदनामी होगी।" ___ श्यामा हंस पड़ी और हंसती-हंसती बोली-"तब तो सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।"
"नहीं श्यामा, ऐसा हो जाएगा तो भयंकर अपवाद हो जाएगा । महाराज भी ऐसा नहीं चाहते।"
"महारानी जी ! आप चिन्ता न करें । मैंने पहले ही इसकी व्यवस्था कर डाली है। आज मध्य रात्रि में वह काम होगा और फिर प्रातः मैं आपसे मिलूंगी।"
"अच्छा, मुझे तेरा पूरा विश्वास है। तू मेरी हितकांक्षिणी है।" रानी ने विश्वास भरे स्वरों में कहा।
"महादेवी ! मेरा दास बहुत होशियार है। वह इस काम की गन्ध भी नहीं आने देगा। वह मेरे इशारे पर न्यौछावर है।"
ऐसा ही हुआ।