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अलबेली आम्रपाली १७५
मिलती है, उत्तेजना मिलती है ।"
" बहुत सुन्दर विचार..."
" तो शुक्रवार की रात्रि के प्रथम प्रहर के बीत जाने पर आप एकाकी यहां...।”
" एकाकी ?"
" आपने मुक्त मस्ती का आनंद नहीं लूटा है, ऐसा प्रतीत होता है । "
बिन तिरछी नजरों से शीलभद्र की ओर देखती हुई बोली ।
"वाह देवि ! आपका मन अत्यन्त रस भरपूर है परन्तु
..")
"क्या ? बिना हिचक के कहें।"
" जल-क्रीड़ा से हम वापस कब लौटेंगे ?"
"जब आप चाहेंगे तब । प्रेमीजन की रातें दीर्घ नहीं होतीं। परन्तु गत
रात्रि की भांति आपके बदले आपका संदेश मिलेगा तो...।"
"देवि ! क्षमा मांग लेता हूं
कल एक महत्त्वपूर्ण कार्य आ गया था. अब ऐसा नहीं होगा. शुक्रवार की रात्रि में मैं अपना रथ लेकर ..।" बीच में ही कादंबिनी बोल उठी- " रथ नहीं ।"
"तब ?" शीलभद्र कादंबिनी की ओर एकटक देखता रहा ।
"प्रिय ! आपकी प्रतिष्ठा अजोड़ है। यदि कोई देखेगा कि आप जैसा महान् व्यक्ति मेरी जैसी तुच्छ नर्तकी के साथ निशाभ्रमण के लिए निकक्षा है तो मुझे लज्जा से मर जाना पड़ेगा. रथ पर नहीं, आप अकेले ही अपने अश्व पर चढ़कर आएं। मैं भी अपने अश्व के साथ तैयार रहूंगी।"
दो क्षण सोचकर शीलभद्र बोला - "देवि ! आपकी दृष्टि बहुत गहरी है... आप जैसा चाहेंगी वैसा ही होगा ।"
यह चर्चा और अधिक लम्बी हो, उससे पूर्व ही लक्ष्मी परिचारिका खण्ड में प्रवेश कर कादंबिनी की ओर देखकर बोली - "देवि ! नृत्याचार्यं आपकी प्रतीक्षा में बहुत समय से बैठे हैं ।"
"ओह !" कहकर कादंबिनी अपने देखकर बोली - "प्रियतम ! क्षमा करें
आसन से उठी और शीलभद्र की ओर मुझे नृत्य की तैयारी करनी है।"
..
शीलभद्र उठ खड़ा हुआ ।
कादंबिनी ने कहा- "मेरा नृत्याभिनय देखने आज रात आप ...।"
"यह मीठा निमन्त्रण मस्ती के अभिनय के अमानत में रखता हूं ।” कहकर शीलभद्र कादंबिनी के पास आ गया ।
कादंबिनी उसके कपोल पर हल्की-सी थापी देती हुई बोली - " आप तो रसावतार हैं ।"
इतना कहकर वह कटाक्ष फेंकती हुई अपनी परिचारिका लक्ष्मी के साथ वहां