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अलबेली आम्रपाली २६३
जो केवल कल्पना-सी लगती थी, वह आज साकार सत्य बन रही थी । हो जाने के पश्चात् जयकीर्ति चाहता था कि वह अपना मूल परिचय धनदत्त सेठ को दे दे।
५४. हर्ष भी, वेदना भी
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विवाह की तिथि निश्चित हो गई । केवल पांच दिन शेष थे । बिंबिसार ने धनदत्त सेठ से कहा - "सेठजी ! आपको एक बात कहनी है, परन्तु संकोचवश कह नहीं
सकता ।"
"जयकीर्ति ! तू तो मेरे पुत्र से भी अधिक है। विवाह है । जो कुछ कहना हो, निर्भय होकर कह । स्वीकार नहीं करूंगा ।" सेठ ने कहा ।
"कौन-सी बात ?"
" विवाह के पश्चात् तू कहीं अन्यत्र जाकर रहना चाहेगा तो मैं कभी स्वीकार नहीं करूंगा । तुझे तो इसी भवन में रहना होगा ।"
"ऐसी बात नहीं है । परन्तु मैंने आपको अपना सही परिचय नहीं दिया है।" हंसते हुए सेठ ने कहा - "तेरा सही परिचय तो मुझे कभी का मिल चुका है। स्वर्ण का सौदा तेरे भव्य जीवन का महान परिचय है ।"
संकोच कैसा ! एकादशी को परन्तु मैं तेरी एक बात कभी
"यह तो आपकी कृपा का ही परिणाम है । मैंने आपको अपना झूठा परिचय दिया था। मैं मगध का वणिक नहीं हूं ।"
" तब ?"
"मैं मगधेश्वर प्रसेनजित का पुत्र युवराज श्रेणिक हूं । किन्तु सभी मुझे fafaसार के नाम से जानते हैं। मुझे राजाज्ञा के कारण देश - निष्कासन को भोगना पड़ा है ।" बिंबिसार ने कहा ।
सेठजी की आंखों में आनन्द उभर आया । वे हर्ष भरे स्वरों में बोले"युवराज श्रेणिक ! ओह, मेरी नन्दा कितनी भाग्यशालिनी है ! स्वर्ण में सुगंध...!”
"सेठजी ! मेरी एक प्रार्थना भी है ।"
" बोल ।"
"मेरा यह परिचय सर्वथा गुप्त रहना चाहिए, क्योंकि अभी मैं देश - निष्काशन भोग रहा हूं ।'
दो पल मौन रहकर सेठ बोले - " जैसी तेरी इच्छा। मेरे लिए तो तू जयकीर्ति ही बना रहेगा ।"
बिम्बिसार को परम संतोष हुआ ।
बड़े ठाट-बाट के साथ विवाह संपन्न हुआ ।