Book Title: albeli amrapali
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Lokchetna Prakashan

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Page 360
________________ अलबेली आम्रपाली ३५१ का मुंह देखकर माविका और प्रज्ञा को कुछ समझ नहीं पड़ा मनोरमा तो अवाक् बनकर खड़ी ही थी। उसने सोचा, देवी का कोई अपमान हुआ है ? देवी को देखकर पद्मरानी खड़ी नहीं हुई या सत्कार में दो शब्द नहीं बोली। इससे तो देवी को दुःख नहीं हुआ है न ? सुदास का रथ निकट आया और वह रथ से नीचे उतरा । उसकी दृष्टि उपवन की ओर जाती हुई सौन्दर्यमूर्ति आम्रपाली पर पड़ी। उसे बहुत आश्चर्य हआ। देवी अकेली उपवन की ओर क्यों जा रही हैं ? इन्होंने संध्या के समय यहां आने के लिए कहा था, फिर इतने पहले क्यों आ गईं ? माध्विका और प्रज्ञा दोनों देवी के पीछे-पीछे चल रही थीं। मनोरमा और अन्यान्य दासियां दिग्मूढ़ होकर खड़ी थीं। सुदास ने मनोरमा से पूछा-'देवी आम्रपाली'।" बीच में ही मनोरमा बोल पड़ी-"सेठजी ! मैंने उनका स्वागत किया था। खंड में आई थीं और अकस्मात् मुड़ गई।" "ओह !" कहकर सुदास शीघ्रता से उपवन की ओर चला। आम्रपाली के मन में एक ही बात घर कर गई थी कि सुदास ने मुझे नीचा दिखाने के लिए ही निमन्त्रित किया है। जिसके भवन में ऐसी सुन्दर अर्धांगिनी हो वह किसी भी स्थिति में अन्य नारी के प्रति आसक्त नहीं हो सकता। मेरे रूप का, मेरे गौरव का और मेरी भावना का ऐसा अपमान आज तक किसी ने नहीं किया । चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर, सूर्य से भी अधिक तेजस्विनी, समुद्र से भी अधिक गम्भीर'' 'नहीं, नहीं, मेरा अपमान करने के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। ऐसे विचारों के मध्य लगभग अपना भान भूली हुई जनपदकल्याणी एक कदम्ब वृक्ष के नीचे पहुंची..." साथ ही साथ माध्विका और प्रज्ञा भी पहुंच गई। माध्विका कुछ कहे, उससे पूर्व ही तेज गति से चलकर आने वाले सुदास का स्वर सुनाई पड़ा-"देवि ! मेरे जीवन की आशा...।" आम्रपाली ने सुदास की ओर देखा। सुदास ने निकट आकर कहा- "देवि ! क्षमा करें. मैं अभी अपने पुराने मकान पर गया था''आप भवन में पधारें।" "सुदास ! तुमने मुझे निमन्त्रण क्यों दिया था ?" जनपदकल्याणी के शब्द सुनकर सुदास कुछ न समझ पाया हो, इस भावना से आम्रपाली की ओर देखने लगा। "अब तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार नहीं है..." "परन्तु मेरा अपराध ?" सुदास के हृदय पर मानो वज्र गिर पड़ा हो।

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