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३५६ अलबेली आम्रपाली
उपसंहार जनपदकल्याणी देवी आम्रपाली ने अपनी सारी सम्पति श्री संघ को समर्पित कर दी और भगवान् तथागत की कृपा से वह भिक्षुणी संघ में प्रविष्ट हो ज्ञान की आराधक बन गई।
एकाध सप्ताह के बाद पद्मसुन्दरी अपने स्वामी सुदास के भवन पर न जाकर चंपा चली गई। देवी आम्रपाली ने अपना नीलपद्म प्रासाद पद्मसुन्दरी को दिया था, परन्तु पदमसुन्दरी ने इसे स्वीकार नहीं किया और बोली-'मां ! बंधन को छोड़े बिना मुक्ति नहीं मिलती। मेरा भी प्रव्रज्या पथ पर चलने का ही निश्चय है।" यह सुनकर भिक्षुणी आम्रपाली बहुत प्रसन्न हुई।
चंपा पहुंचकर पद्मसुन्दरी ने पार्श्वनाथ की परम्परा के प्रभावी आचार्य सुदर्शन मुनि के पास साध्वी दीक्षा स्वीकार कर ली। उसे साध्वी विजयश्री की निश्रा में रहने की आज्ञा दी। ___ आर्य सुदास के जीवन में भी बड़ा परिवर्तन हुआ कुछेक झटके जीवन की शोभा बन जाते हैं। आर्य सुदास भी अपनी समग्र सम्पत्ति का दान कर आचार्य सुदर्शन के पास मुनि बन गया।
बिबिसार के हृदय में संपोषित स्वप्न नष्ट हो, उससे पूर्व ही पुत्र की अभिलाषा को संतुष्ट करने के लिए नंदा उज्जयिनी से अभयकुमार को साथ ले वहां आ पहुंची। मगधेश्वर ने पत्नी और पुत्र का बहुत आदर-सत्कार किया।
समय का चक्र चलता रहता है । चलते-चलते वह अनेक स्मृतियों को पाताल में डबाता जाता है, अनेक स्मृतियों को उभारता है और अनेक स्मतियों को स्वीकारता जाता है । उसकी गति निर्बाध होती है। उसमें कोई अस्थिरता नहीं होती, उसमें कोई स्पंदन नहीं होता । काल की तरंगें महक उठी थीं।
एक ओर भगवान् तथागत लोक-जीवन में व्याप्त संकुचित भेद धारा को नष्ट कर धर्म के प्रशस्त मार्ग की रेखाएं अंकित कर रहे थे और दूसरी ओर ज्ञात पुत्र भगवान् महावीर शाश्वत सुख के मार्ग का प्रतिपादन करते हुए लोक-जीवन में अहिंसा, सर्वत्याग और समभाव का अमृत उडेल रहे थे । वे जन्म, जरा और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की शाश्वत सिद्धि लोकजीवन में व्याप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे।
समस्त पूर्व भारत में सत्य, अहिंसा और मुक्ति का गीत गूंज रहा था।