Book Title: albeli amrapali
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Lokchetna Prakashan

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Page 341
________________ ३३२ अलबेली आम्रपाली "मैं धन्य बनी । पर जनपदकल्याणी कभी किसी की अतिथि नहीं बनती... बनती है तब..." "आपकी सारी इच्छाएं पूरी करूंगा।" "सवा लाख स्वर्णमुद्राएं..." "नहीं प्रिये ! आपकी साधना का मूल्य तो इससे बहुत अधिक है। मुझे प्रतिदान की भी इच्छा नहीं है।" "प्रतिदान नहीं. 'प्रतिदान तो मुझे देना ही पड़ेगा।" कहकर आम्रपाली ने हंसते-हंसते सुदास के कंधों पर हाथ रखा और कहा-"आपका निमंत्रण मुझे याद रहेगा' 'आपको मैं अपना अनुकूल दिन बता दूंगी।" सुदास परम प्रसन्न हो गया। परन्तु वैभव और मस्ती में विभोर बनी अलबेली आम्रपाली को यह ख्याल नहीं था कि सुदास और कोई नहीं, वह अपनी प्रिय पुत्री पद्मरानी का स्वामी ६७. तथागत बुद्ध रात्रि के दूसरे प्रहर का प्रारंभ हो गया था। सुदास अभी तक भवन पर पहुंचा नहीं था। दास-दासी प्रतीक्षा कर रहे थे और देवकन्या सदृश पद्मरानी अपने खंड में एकाकिनी बैठी-बैठी किसी धर्मसूत्र की मन-ही-मन आवृत्ति कर रही थी। ___ सुदास की मुख्य परिचारिका विगत तीन महीनों से यह प्रयत्न कर रही थी कि सेठानी रंगभरी बातों में रस ले । परन्तु पद्म रानी का चित्त कभी भी विलासप्रिय बातों में रस नहीं लेता था । आज तो उसने मुख्य परिचारिका से स्पष्ट कह सुनाया था-"मनोरमा ! विलास का जीवन जीवन नहीं होता । यह जीवन के विविध साधनों में एक क्षुद्र साधक है । मुझे ऐसी बातों में तनिक भी रस नहीं है। तुझे मेरी मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।" मनोरमा को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और वह कुछ रुष्ट होकर एक ओर खड़ी हो गई। पद्मरानी जानती थी कि मनोरमा सेठजी की प्रिय दासी है और उसकी आवाज सेठ तक पहुंचती है। परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं है कि दासी को गृहस्वामिनी की मर्यादा का ध्यान नहीं रखना चाहिए। मनोरमा सुदास की मुख्य दासी थी, क्योंकि वह रूपवती न होने पर भी कभी-कभी सुदास की तृप्ति का साधन बनती' 'इसमें यौवन की उन्मत्तता थी, चंचलता और ऊष्मा भी थी। इसीलिए यह सुदास को प्रिय थी। जैसा यह कहती, अनेक बार सुदास वैसा ही करता। सुदास ने ही पद्मरानी के मन में

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