Book Title: albeli amrapali
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Lokchetna Prakashan

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Page 343
________________ ३३४ अलबेली आम्रपाली बोला-"परसों संध्या से पूर्व देवी आम्रपाली इस भवन में अतिथि के रूप में आएंगी।" "देवी आम्रपाली ?" "हा और रात भर यहीं रुकेंगी।" "सेठजी ! यह तो असंभव है।" "स्वर्ण असंभव को भी संभव बना देता है।" इतना कहकर सदास ऊपर जाने की सोपान श्रेणी पर चढ़ने लगा और शीघ्रता से पत्नी के खंड में पहुंच गया। पद्मरानी एक आसन पर बैठी-बैठी कुछ आराधना कर रही थी। स्वामी को खण्ड में प्रविष्ट होते देखकर वह खड़ी हो गई। दीपमालिकाओं के प्रकाश में पद्मरानी का रूप निखर रहा था। सुदास ने निकट आकर कहा-"क्यों प्रिये ! चित्त तो प्रसन्न है न ?" "हां ।" पद्मरानी ने संक्षेप में उत्तर दिया। "पद्म ! तू इतनी नीरस क्यों है ?" "स्वामिन् ! इसकी कल्पना प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न होती है।" "मैं समझा नहीं।" "नगरनारी के विलास में जिसको रस-दर्शन होता है, उसे गृहिणी के अंग में नीरसता ही लगती है। ..." सुदास ये शब्द सुन आहत-सा हुआ। दूसरे ही क्षण वह बोला-"रस एक शास्त्र है और गणिकाएं उसमें पारंगत होती हैं।" "क्योंकि गणिकाओं का जीवन उस शास्त्र को बेचने में रहता है।" "तेरे जैसी नीरस स्त्रियों के पतियों को ही गणिकाओं के पास रस पाने जाना पड़ता है।" सुदास बोला। _ "स्वामिन् ! स्त्रियों पर यह भयंकर और आधारहीन आक्षेप है 'पुरुष अपने दोषों को छुपाने के लिए स्त्रियों पर ऐसा दोषारोपण करते हैं। किंतु ऐसी वृत्ति के पीछे मनुष्यों की लालसा, अतृप्ति और क्षुद्र दृष्टि ही काम करती है।" सुदास खड़खड़ाकर हंस पड़ा और हंसते-हंसते बोला-"पद्म ! तू मुझे कभी नहीं समझ पाएगी परन्तु तुझे समझाने का एक मार्ग मैंने ढूंढ़ निकाला है।" पद्मरानी मौन रही। सुदास बोला--'परसों पूर्व भारत की श्रेष्ठ सुन्दरी और वैशाली गणतंत्र की जनपदकल्याणी देवी आम्रपाली इस भवन का आतिथ्य ग्रहण करने यहां आएंगी।" पद्मरानी ने कोई आश्चर्य नहीं दिखाया।

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