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३३६ अलबेली आम्रपाली
"आप एक उच्च कुल और खानदान में एकाकी पुत्र हैं। आपके रक्त में जैनत्व का तेज भरा है। आप संपत्ति शाली हैं। संपत्तिशाली व्यक्ति कभी छलकते नहीं. 'जो छलकता है उसकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। फिर भी आपने केवल देवी आम्रपाली के स्पर्श के लिए पांच लाख स्वर्ण मुद्राओं को अर्पण करने का सौदा किया है। स्पर्श में कौन-सा आनन्द है ? कौन-सी तृप्ति है ? पांच लाख स्वर्ण मुद्राओं से तो एक लाख परिवारों के आंसू पोंछे जा सकते हैं..."उनको सन्मार्ग पर लाने का कर्तव्य पूरा किया जा सकता है..." __ बीच में ही व्यंग्य भरे हास्य के साथ सुदास बोला-"ओह ! ईर्ष्या की अग्नि में जलते हुए तेरे हृदय का आज परिचय हो गया। इन सारे उपदेश-वाक्यों के पीछे देवी आम्रपाली का आगमन ही दीख रहा है परन्तु रानी ! यदि तु मेरी इच्छाओं के अनुकूल नहीं रहेगी तो इस भवन में प्रतिदिन एक आम्रपाली का आगमन होता रहेगा।"
ऐसा कहकर सुदास रोष से पैरों को पटकता हुआ खण्ड से बाहर निकल गया।
खंड के बाहर मनोरमा खड़ी थी। उसने धीरे से कहा- “सेठजी ! भोजन तैयार है।"
"मेरे शयनखंड में भोजन का थाल लेकर आ।" मनोरमा वहां से चली। इतने में सुदास बोला- "अरे, तूने भोजन कर लिया ?" "नहीं..." "तू भी मेरे साथ ही भोजन कर लेना।" "जी..." "मैरेय लेती आना।"
"जी" कहकर मनोरमा भोजनगृह की ओर गईसुदास अपने शयनकक्ष में गया।
पद्मरानी गंभीर विचार में मग्न बैठी रही। उस समय मगधेश्वर बिबिसार और धनंजय वैशाली से तीस कोस की दूरी पर एक सामान्य गांव में रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। वे गुप्तवेश में भगवान् गौतम बुद्ध और अपने पुत्र अभयजित को देखने निकले थे।
बिबिसार की यह भावना थी कि गौतम बुद्ध के पास से अभयजित को प्राप्त कर लेना और उसे राजगृही में रखना। यदि ऐसा होता है तभी आम्रपाली राजगृही आ सकती है। ___किंतु जब वे इस छोटे से गांव में पहुंचे तभी उन्हें यह ज्ञात हुआ कि तथागत दो दिन पूर्व ही वैशाली की ओर विहार कर गए हैं।