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अलबेली आम्रपाली ३४३
देवि आम्रपाली कुछ भी नहीं बोल सकी भगवान् तथागत की अमृतमय वाणी में वह इतनी मग्न हो गई थी कि भगवान् से विवाद करने का प्रश्न ही नहीं उभरा।
काष्ठ का द्वार बंद था. 'आम्रकानन का स्पर्श कर प्रवाहित होने वाला पवन अत्यंत सुखद था।
भगवान् तथागत उसी प्रसन्न मुद्रा में बोले-"कल्याणि ! यदि चित्त का संशय दूर न हुआ हो तो तू अंदर आ सकती है। अभयजित की माता सभी को निर्भय करने की शक्ति से सम्पन्न है।"
आम्रपाली ने हाथ जोड़कर कहा-"भगवन् ! मैं परसों आऊंगी 'मेरे चित्त में अनेक प्रश्न उभर रहे हैं। उनका समाधान पाकर मैं कृतार्थ हो जाऊंगी... विधि-निषेध का हेतु मेरी समझ में आ गया है।"
आम्रपाली ने मस्तक नमाया । भगवान् बुद्ध ने मृदु-मधुर स्वर में कहा-"धर्म सदा तेरी रक्षा करे !" इतना कहकर वे तत्काल मुड़ गए।
भावमग्न आम्रपाली ने जब मस्तक उठाकर द्वार की ओर देखा तब तक प्रकाशपुंज चला गया था। उसने माविका से कहा-"चल."
दोनों रथ में बैठ गई। रथ नगरी की ओर चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने पर माध्विका ने कहा-"देवि ! भगवान् के नयनों में अमृत के अतिरिक्त कुछ नहीं होता।"
आम्रपाली विचारमग्न थी। उसने कुछ सुना ही नहीं। माधु ने फिर कहा"देवि ! भगवान के दर्शन से आपको संतोष तो हुआ ही होगा ?"
"संतोष हुआ, यह मैं कैसे कह सकती हूं। परन्तु गौतम बुद्ध का चेहरा तो कभी विस्मृत न करने जैसा है।"
"आपके मन की बात भगवान् ने।"
"नहीं माधु ! ऐसा कुछ मुझे नहीं लगा परन्तु इतना अवश्य समझ में आया है कि मेरा अभयजित मुझे वापस मिल जाएगा। उनके शब्दों का आशय लगभग यही था।" आम्रपाली ने कहा ।
"हां, देवि 'आपकी बेदना उनको छू गई लगती है।"
"संभव है. ऐसा भी हो सकता है कि...।" कहती हुई आम्रपाली विचारमग्न हो गई।
"क्या देवि !"
"अभयजित माता के बिना रह न सकता हो. 'बालक को संभालना सरल नहीं है।" आम्रपाली ने कहा।
माध्विका कुछ नहीं बोली।