Book Title: albeli amrapali
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Lokchetna Prakashan

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Page 340
________________ अलबेली आम्रपाली ३३१ उसने सदाचार और विवेक को अमृत से सींचा था। तारिका स्वयं जैन मत की उपासिका थी और पद्म रानी में भी ये ही जैन-संस्कार कूट-कूट कर भरे थे। इसलिए पद्मरानी के मन में स्थिरता, गांभीर्य और उदारता के गुण सहज थे । परन्तु उसमें पुरुषों को प्रसन्न करने वाले उपचार या अभिनय नहीं थे। इसलिए सुदास को ऐसा लगता कि उसने किसी निर्जीव अथवा ऊष्मा-विहीन किसी कांच की पुतली से विवाह किया है। पुष्प सुन्दर है, पर उसमें सौरभ नहीं सौरभ की कल्पना मनुष्य के मन के साथ जुड़ी हुई है। सुदास ने नर्तकियों और गणिकाओं को देखा था' 'किसी कुलवधू की धन्य छवि से वह परिचित नहीं था । वह चाहता था पत्नी में नर्तकी अथवा गणिका जैसी ऊष्मा। इससे उसका मन अतृप्त रहने लगा। वह पत्नी के प्रताप के आगे कुछ कह नहीं सकता या। परन्तु मन में असंतोष था और इस असंतोष की आग को बुझाने के लिए उसका चित्त पुन: आम्रपाली के नृत्यों को देखने के लिए आतुर बना । देवी आम्रपाली अब सप्ताह में एक ही बार नृत्य करती थी किंतु मिलने के लिए आने वालों का वह सदा सत्कार करती थी। सुदास प्रतिदिन संध्या के समय आम्रपाली से मिलने जाने लगा। वह जाते समय अपने साथ छोटी-बड़ी भेंट भी ले जाने लगा। लगभग बीस दिन तक यह क्रम चलता रहा । देवी आम्रपाली को आश्चर्य हुआ। एक दिन उसने आर्य सुदास से पूछा-"प्रिय ! आप जैसा मौन आराधक मुझे आज तक नहीं मिला।" "मैं धन्य हुआ, देवि !" "देवी नहीं, मैं आपको प्रिये कहने का अधिकार देती हूं. किसी भी प्रकार की इच्छा व्यक्त किए बिना ऐसा अपूर्व समर्पण पुरुष जाति में नहीं होता। आपका शुभ नाम ?" "आर्य सुदास ।" आम्रपाली ने मैरेय का एक पात्र सुदास के हाथ में दिया। सदास बोला-"प्रिये ! मेरे भवन पर एक बार आपके चरण..." बीच में ही आम्रपाली बोली-"आपका भवन कहां है ?" "क्षत्रियकुंड और वैशाली के मध्य ।" "क्षत्रियकुंड ! महाराज नंदीवर्धन के एक नौजवान भाई..." "जी हां, वर्धमानकुमार ने जहां सर्वत्याग किया था "वह ।" "ओह ! तब तो वहां के त्याग की विषली हवा में मेरे प्राण सूख जाएंगे।" आम्रपाली ने हंसते-हंसते कहा। "नहीं देवि ! मेरा भवन निराला है। आपका सत्कार मैं बहुत..."

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