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अलबेली आम्रपाली ३२५
चाह नहीं है । यह स्वयं ज्ञानी है । इसकी भावना का सत्कार करना तेरा कर्तव्य है ।"
"भगवन् ! इस बालक के माता-पिता ?"
"वैशाली की जनपदकल्याणी आम्रपाली इसकी माता है मगध के सम्राट श्रेणिक इसके पिता हैं ।" भगवान् ने कहा और बालक को निर्मल दृष्टि से देखा । अभय जित भगवान् बुद्ध के चरण-कमलों में लेट गया और भगवान् ने अपन हाथ उसके मस्तक पर रख दिया ।
और उस समय कुछ दूर खड़े भिक्षु बोल उठे—
"धम्मं शरणं गच्छामि ।"
"संधं शरणं गच्छामि ।"
सूर्योदय होते-होते अभयजित के साथ वाले सभी व्यक्ति उसको ढूंढते ढूंढते उसी बिहार में आ पहुंचे ।
और उन सबने देखा अभय के शरीर पर कोई अलंकार नहीं है केवल पीले रंग की एक संघाटी शरीर पर शोभित हो रही है।
और भगवान् बुद्ध वहां से विहार करें, उससे पूर्व ही अभयजित के साथ आने वाले सभी नर-नारी भगवान् के समक्ष आए और प्रव्रज्या की याचना करते हुए भगवान् के चरणों में गिर पड़े । केवल वृद्ध भांडागारिक ऋषभदास इस अनोखे दृश्य को देखता हुआ एक ओर खड़ा रहा ।
सभी को प्रव्रज्या देकर आनन्द ने ऋषभदास से कहा - "भद्र ! देवी आम्रपाली को यह शुभ संदेश पहुंचाना, कहना कि जो करना था, वह बालज्ञानी अभयजित ने कर डाला है जो लेने योग्य था उसे लिया है जो त्यागने योग्य था उसे त्यागा है ।"
यह समाचार जब ऋषभदास ने आम्रपाली को कहा तब उसके हृदय पर
सघन आघात लगा था ।
इस आघात का प्रतिकार ?
ओह ! आम्रपाली को इस वेदना का प्रतिकार धर्म में नहीं दिखा दिखा केवल मैरेय और वैभव की मस्ती में भगवान् बुद्ध के प्रति उसके मन में एक रोष उत्पन्न हुआ उसका मन हुआ कि तथागत को रूप की ज्वाला में जलाकर खाक कर देना चाहिए ।
परन्तु आम्रपाली ने अभी तक तथागत को देखा नहीं था । यदि उसने एक बार भी तथागत की दृष्टि से अविकल रूप प्रवाहित अमृत का पान किया होता तो वह उनके चरणों में सर्वस्व समर्पित कर कल्याण का सही मार्ग अपना लेती··· जिस मार्ग में न वेदना है, न विलास है, न अतृप्ति है, न राग है, न मोह है जहां केवल ज्ञान है, शांति है और आत्म-कर्तव्य है ।