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२८८ अलबेली आम्रपाली
__ उस कक्ष में बिंबिसार को विचारमग्न बैठे देख वह चौंकी। किसी भी दिन स्वामी इस खंड में नहीं आते और यदि आते हैं तो इतने गम्भीर नहीं होते। वह स्वामी के समक्ष जाकर खड़ी हो गई और मृदु-मंजुल स्वर में बोली-"क्यों, क्या अस्वस्थता है ?"
"नहीं प्रिये ! मैं तेरा ही इन्तजार कर रहा था।" "क्या आज्ञा है ?"
"पहले इस पत्र को पढ़ ले।" कहकर बिंबिसार ने नंदा के हाथ में महामंत्री का पत्र रखा।
नंदा ने पूरा पत्र पढ़ लिया। पत्र पढ़कर वह क्षण भर के लिए अन्यमनस्क हो गई । बिबिसार ने सदा प्रसन्न नंदा के चेहरे पर चिन्ता की रेखाओं को उभरते देखा।
नंदा ने पूछा- "आपने क्या निर्णय लिया है ?" "तेरा विचार जाने बिना मैं क्या निर्णय लूं?"
"ऐसे तो यह कर्तव्य की पुकार है । प्रश्न यह है कि आपको देशनिष्कासन।"
"हां, इसका प्रयोजन शुभ था।" कहकर धनंजय ने जो बात बतायी, थी वह बात सारी की सारी नंदा को कह सुनाई। ___ नंदा बोली- “ऐसे प्रेमा पिता की सेवा करने आपको जाना ही चाहिए। चाहे पिता प्रेमाई हो या न हो, सन्तान का कर्तव्य है कि वह पिता की सेवा अवश्य करे। परन्तु।"
"परन्तु क्या?"
नंदा कुछ नहीं बोली। उसके मन में पति-वियोग की व्यथा उभर आई। परन्तु कर्तव्य-मार्ग में अवरोध बनना भी वह नहीं चाहती थी।
बिबिसार ने विचारमग्न प्रियतमा का एक हाथ पकड़कर कहा- "प्रिये मेरी भावना थी कि मैं तुझे भी साथ ले जाऊं। किन्तु तेरी जो परिस्थिति है उसके समक्ष मुझे अपनी उर्मियों को दबाना पड़ रहा है। पिताजी भी नहीं चाहते कि इस परिस्थिति में तू इतना लम्बा प्रवास करे।"
"क्या आपने पिताजी से बात की थी?"
"हां, उन्होंने मुझे जाने की अनुमति दे दी है । उनके कथन के अनुसार मैं परसों प्रस्थान करूंगा, ऐसा विचार है।" । __ नंदा के तेजस्वी नयन स्वामी में स्थिर हो गए। दो क्षण स्थिर दृष्टि से देखने के पश्चात् उसने पूछा- "आप कब तक लौट आएंगे ?"
"प्रिये ! इसका कोई अनुमान नहीं बताया जा सकता। पिताश्री वयोवृद्ध हैं। 'कब उनके काल की ठोकर लग जाए, कहा नहीं जा सकता । मैं तो चाहता