Book Title: albeli amrapali
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Lokchetna Prakashan

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Page 314
________________ अलबेली आम्रपाली ३०५ "मेरी इच्छा है कि मैं देवी आम्रपाली को साथ में ही ले आऊं।" "क्या वे आएंगी?" धनंजय ने पूछा। "वहां जाने के बाद ही पता लग सकेगा।" "परन्तु...?" "क्या?" "वैशाली जाने-आने में तथा वहां कुछ दिन रुकने में एक महीना तो लग ही जाएगा।" "हां, इस प्रसंग में कोई योजना बनाऊंगा।" "परन्तु..." "धनंजय ! परन्तु शब्द निर्भीक व्यक्तियों को शोभा नहीं देता।" "महाराज ! मेरा आशय वहां की परिस्थिति से है। पर्वतपुर की विजय के पश्चात् वैशाली गणतन्त्र चोंका है और जब कभी आप वैशाली को ध्वंस कर देंगे, ऐसी हवा वहां चल रही है । ऐसी स्थिति में वहां गुप्त वेश में जाना, यह..." "धनंजय ! मगध के सम्राट का भय वैशाली की जनता को भले हो, किन्तु आम्रपाली के प्रियतम का भय रखने का कोई कारण नहीं है। फिर भी मैं असावधान रहना नहीं चाहता। पहले तू अकेला वैशाली जाना, मेरा संदेश देवी को देना और पुनः उसका प्रत्युत्तर अपने साथ ही ले आना।" दो क्षण सोचकर धनंजय बोला-'यदि देवी आम्रपाली वहां न हों तो?" "वह कहीं अन्यत्र जाएं, ऐसी सम्भावना नहीं है । फिर भी तू खोजकर वापस मा जाना । तुझे एक सप्ताह के अन्दर यहां लौट आना है।" "जी!" धनंजय ने कहा। "तो तू कल ही प्रस्थान कर जा। मैं कल अपना सन्देश भी दे दंगा।" बिंबिसार ने कहा । धनंजय मस्तक झुकाकर चला गया। उसी रात्रि में बिंबिसार अपने कक्ष में बैठकर एक ताडपत्र पर अपने हृदय के भाव अंकित किये और उस ताडपत्र को दो-तीन बार पढ़कर एक नलिका में डाला । उसने लिखा __ "प्राणप्रिये ! बहुत समय बीत जाने पर भी तेरी ओर से कोई समाचार प्राप्त नहीं हुआ, इससे मेरा मन अत्यधिक व्याकुल बन गया है । तू तो यह जानती ही है कि मगध का सिंहासन मुझे मिला है । राजधर्म में इतना व्यस्त हो गया हूं कि मैं अपने जीवन सौरभ को भी भूल गया। दो वर्ष पूर्व तूने कहलाया था कि संदेश भेजूंगी' परन्तु आज तक कोई संदेश नहीं मिला। उसके बाद भी मैंने दो-तीन बार संदेश भेजे थे, किसी का उत्तर नहीं मिला । मुझे एक बात का पूर्ण विश्वास है कि तेरे हृदय ने मेरी स्मृति को कभी देश-निष्कासन नहीं दिया होगा और इसी विश्वास के आधार पर मैं आज बताना चाहता हूं कि मैं तुझे लेने आ रहा हूं। धनंजय को मैंने इसलिए भेजा है

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