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३२० अलबेली आम्रपाली
_ "प्रियतम ! मैं आपको कैसे समझाऊं? मैंने वैशाली के पवित्र जल का स्पर्श • कर प्रतिज्ञा ली है 'यदि लिच्छवी जान लेंगे तो वे आपको सुखपूर्वक राज नहीं करने देंगे।" ___ "प्रिये ! लिच्छवियों का मुझे तनिक भी भय नहीं है । तू यदि आज्ञा दे तो मैं दो महीनों में वैशाली को बरबाद कर दूं और तुझे प्रतिज्ञा की चिन्ता क्यों है ? आवेश या बलात् थोपे हुए नियमों का पालन करना उचित नहीं है।"
आम्रपाली समझी नहीं।
बिंबिसार ने तीन दिन तक उसे समझाने का प्रयास किया। किन्तु आम्रपाली वैशाली का त्याग करने के लिए तैयार नहीं हुई। उसके मन में एक ही भय था कि यदि मैं वैशाली का त्याग कर राजगृही चली जाऊंगी तो मगधेश्वर की मागधी सेना वैशाली को नष्ट-भ्रष्ट कर देगी। मैं वैशाली की कन्या हूं। केवल अपने स्वार्थ के लिए मैं अपनी जन्मभूमि को बरबाद कैसे होने दूं।
परन्तु यह भय उसने बिंबिसार के समक्ष प्रकट नहीं किया।
दो दिन और बीत गए।। ___ धनंजय बहुत शीध्रता कर रहा थ... बिंबिसार भी समझता था कि कर्तव्य की अवगणना नहीं की जा सकती। उसने प्रिया से विदाई लेते हुए कहा- "प्रिये ! बहुत प्रयास करने पर भी न समझ नहीं सकी, इसका मुझे दुःख है। फिर भी मुझे अपने उत्तरदायित्व के कारण जाना पड़ रहा है।"
___ आम्रपाली भी जानती थी कि मगधेश्वर रुक नहीं सकते। वह बोली"अब आपके दर्शन...?"
"मैं अभी बिना निमन्त्रण तेरे पास आया हूं..'अब तुझे भी बिना निमन्त्रण राजगृही आना है । यदि तू पुत्र का प्रसव करेगी तो वह मगध का भावी सम्राट होगा। मेरे इस वचन को तू भूल मत जाना।" बिंबिसार ने कहा।
संध्या के पश्चात बिंबिसार और धनंजय ने वैशाली का त्याग कर दिया। । वहां से प्रस्थान करते समय बिंबिसार का चित्त आम्रपाली के नकारने से व्यथित हो रहा था और उसने यह निश्चय कर लिया था कि अब आम्रपाली से तभी मिलना है जब वह स्वयं चलकर राजगृही आए।
६५. काल की क्रीड़ा काल का कहीं किनारा नहीं । वह अनन्त है। काल के विराट् प्रांगण में मानव केवल एक क्षुद्र जन्तु के समान है। मानव का परिवार भी निरी आंखों से दिखाई नहीं देता। मानव का इतिहास भी क्षुद्र लगता है ।
मानव काल की महागति को रोकने का प्रयास करता रहा है । परन्तु काल