________________
अलबेली आम्रपाली २७६
उसका नाड़ी परीक्षण किया । उसकी कल्पना सही निकली। उसने तत्काल उस स्त्री को निद्रा लाने वाली एक पुड़िया दे दी ।
दूसरे दिन प्रातः जीवक अपने अन्तर्दर्शक पाषाण के द्वारा रुग्ण स्त्री के अर्बुद की परिस्थिति देखी और रक्षक से कहा- "भाई ! तेरी पत्नी बच जाएगी परंतु इसकी उपचार विधि अत्यन्त कठिन है। इस नगरी में कोई शल्य चिकित्सक हो तो बुला ला, मैं उसको सब कुछ समझा दूंगा ।"
रक्षक रो पड़ा। नगरी में ऐसा कोई चिकित्सक नहीं है, यह कहते हुए वह बोला -- "भगवन् ! प्रभु ने आपको मेरी पत्नी के कल्याण के लिए भेजा है । आप ही कुछ उपाय करें। मैं तो अत्यन्त निर्धन हूं।"
वैद्य के रक्त में करुणा, दया और ममता सहजरूप से होती ही है । जिस वैद्य में इनका अभाव होता है, वह वैद्य किसी का कल्याण नहीं कर सकता । जीवक के हृदय की करुणा जाग उठी और वह वहीं रुक गया। अग्निकर्म के प्रयोगों से रुग्णा के अर्बुद को मिटाने में एक मास लगा । इसलिए सभी को साकेत में एक मास रहना पड़ा ।
रुग्णा बच गई । अर्बुद नष्ट हुआ और गरीब का सथवाड़ा आधी यात्रा में टूट जाने से बच गया ।
धनंजय दोनों रत्नों को लेकर फाल्गुन के प्रथम सप्ताह में राजगृही पहुंचा । परन्तु राजगृही में तो गहरी उदासी छा रही थी। मगधेश्वर प्रसेनजित पन्द्रह दिनों से शय्याधीन बन गए थे । राजवैद्य तथा अन्यान्य वैद्य रोग का निवारण नहीं कर पा रहे थे ।
रानी त्रैलोक्यसुन्दरी भी घबरा गई थी। संतान प्राप्ति की उसकी तीव्र लालसा अधूरी ही रह गई थी । उसकी प्रिय सखी श्यामांगी की सलाह भी क्रियान्वित नहीं हो सकी थी। उसने कृत्रिम रूप से सगर्भा बनने की सलाह दी थी और अंतिम उपाय के रूप में इस पर अमल करने का निश्चिय भी किया था । परन्तु महाराजा बीमार हो गये । त्रैलोक्यसुन्दरी के लिए अब एक ही उपाय शेष रहा था। किसी भी प्रयत्न से महाराज बीमारी से मुक्त हों और येन-केन-प्रकारेण एक ही बार उसके साथ सहवास करें और फिर सगर्भा होने की बात प्रचारित कर दी जाए ।
इसलिए रानी त्रैलोक्य सुन्दरी महाराज को रोगमुक्त करने के लिए आकाशपाताल को एक कर रही थी और उसी समय जीवक वहां आ पहुंचा ।
महामंत्री ने दोनों रत्नों के स्वागत की बहुत तैयारियां की थीं। परन्तु जीवक को ज्ञात होते ही वह स्वागत के कार्यक्रम से खिसक कर अपने पिता से मिलने निकल पड़ा ।