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२८४ अलबेली आम्रपाली
"अरे, आपको कहीं देखा तो है, पर पूरा पहचान नहीं सका।" "भोले भाई ! जयकीति सेठ के साथ मैंने ही तुझे रखा था।" "ओह ! क्षमा करें। आप कब आए ?" "आज ही। जयकीर्ति सेठ कहां हैं?" "यहीं हैं, और इस धनदत्त सेठ के दामाद हैं।" "दामाद ?" धनंजय के आश्चर्य का पार नहीं रहा।
"हां, अभी आश्विन मास में सेठ की एकाकी पुत्री के साथ विवाह हुआ है। क्या आप कुछ नहीं जानते ?"
"मुझे कैसे पता चले ? मैं तो बहुत दूर प्रवास पर निकल गया था। अब वे कहां हैं ?"
“यहीं हैं । मेरे साथ चलें, अभी मिला देता हूं।"
धनंजय दामोदर के साथ चला गया। एक बड़े कमरे में स्वर्ण निर्माण की क्रिया चल रही थी। जयकीति खड़े-खड़े ध्यान रख रहे थे । इतने में दामोदर भीतर आकर बोला--"श्रीमन् ! पाटलिपुत्र से आपके मित्र धनंजय आए हैं ?"
"धनंजय ? कहां है ?" "बाहर खड़े हैं।"
"अच्छा, तू यहीं रह । मैं लौट आता हूं।" कहकर बिंबिसार अपने प्रिय मित्र से मिलने तत्काल बाहर आया। ___ बिंबिसार को देखते ही धनंजय निकट आया और युवराज के चरणों में नत हो गया । बिंबिसार ने धनंजय को खड़ा करते हुए कहा- "अरे मित्र ! यह क्या? तुम तो दो महीने के भीतर-भीतर आने वाले थे। इतना विलम्ब...?"
"मुझे आर्य वर्षाकार और कुमार जीवक को लाने तक्षशिला जाना पड़ा था।" "ओह ! दोनों कुशल तो हैं न ?" "हां, महाराज ! परन्तु एक विपत्ति खड़ी हो गई है, इसलिए मैं .." "विपत्ति ?"
"हां, परन्तु यह बात हम एकान्त में करेंगे। मगधेश्वर का पत्र भी है और मुझे भी कुछ कहना है। आप कहें तो पांथशाला में ..?" धनंजय ने कहा।
"चल, मैं अभी पहुंचता हूं, पांथशाला में पिताजी का सन्देश...?" "पांथशाला में ही है । मैं तो केवल आपको ढूंढ़ने यहां आ गया था।"
बिंबिसार ने पांथशाला में जाने के लिए रथ तैयार करवाया। धनंजय और बिबिसार-दोनों रथ में बैठकर पांथशाला में आए। दोनों एक खंड में गए । धनंजय ने महामंत्री का सीलबंद पत्र बिबिसार को देते हुए कहा-''महाराज ! मगधेश्वर बहुत बीमार हैं। महामंत्री ने मुझे एक गुप्त बात कहने के लिए कहा