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अलबेली आम्रपाली १९१
'ओह' कहकर शीलभद्र ने अपने घोड़े को एड़ी लगाई।"
लगभग अर्द्ध घटिका में दोनों नदी के तट पर स्थित सुरम्य उपवन में मा पहंचे । यह उपवन अत्यन्त प्राकृत था। रमणीय और मनमोहक था। वैशाली के शलानी यहां यदा-कदा आते और मौज-मस्ती कर चले जाते ।
शीलभद्र अपने अश्व को चारों ओर से बृहद वृक्षों से घिरे चौक में ले आया। बादल बिखर चुके थे और अर्द्ध चन्द्र का स्निग्ध प्रकाश नयनरंजक लग रहा था।
दोनों अश्वों को रोक वे नीचे उतर गए । शीलभद्र ने कहा-'प्रिये ! मैं तुम्हारी कल्पनाशक्ति को दाद देता हूं। यौवन के मिलन के लिए ऐसी रात्रि, ऐसा एकान्त, ऐसी नीरवता और..."
बीच में ही कादंबिनी बोल बठी । "आप जैसे यौवन साथी..."
"नहीं-नहीं, तेरे जैसी मदभरी मदिराक्षी", कहकर शीलभद्र ने अपने अश्व को एक वृक्ष से बांधा । कादंबिनी ने भी अपने सुबुद्धि अश्व को वृक्ष की डाली से बांध दिया।
कादंबिनी बोली--"क्या मदिरापान की व्यवस्था है ?"
"प्रिये ! क्षमा करना 'हड़बड़ी में भूल गया।" कहकर शीलभद्र ने कादंबिनी का हाथ पकड़ा।
कादंबिनी बोली-"क्षणभर बाद । मैं थोड़ा..."
"ओह ! बाद !" शीलभद्र ने कहा । उसने देखा कादंबिनी अपनी पगड़ी उतार रही है।
कादंविनी ने अपनी पाग उतार कर अपने अश्व की पीठ पर रख दी। फिर कौशेय का उत्तरीय भी उतार डाला शीलभद्र ने देखा, एक मदभरी सुन्दरी।
शीलभद्र मुग्ध नयनों से देखता रहा।
वह बेचारा शीलभद्र क्या जाने कि यह रूप और यौवन उसका काल बनकर आया है और आज की रात उसकी अंतिम रात्रि है।
शीलभद्र बोला-"प्रिये ! मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी?' "प्रार्थना क्यों, आज्ञा कहें।" "मैं तुझे निरावरण।" तत्काल कादंबिनी बोल उठी-"तब तो धैर्य का बांध टूट जाएगा।"
"धर्य तो अभी चला गया है, अब मैं एक क्षण का भी धर्य नहीं रख सकता''-कहकर शीलभद्र ने कादबिनी में समा जाने का प्रयत्न किया।
परन्तु।
दूसरे ही क्षण शीलभद्र का बाहुपाश शिथिल होने लगा' 'उसकी आंखें विकृत हो गई. ''उसकी काया कांपने लगी।