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अलबेली आम्रपाली २५६ सभी व्यापारी स्तब्ध रह गये । मानो बिजली कड़क कर गिर पड़ी हो, ऐसी स्तब्धता छा गई।
सभी लोग उस नये व्यापारी की ओर देखने लगे।
महामंत्री ने स्वयं खड़े होकर कहा--"महानुभावो ! श्रीमान् धनदत्त सेठ के मुनीम ने प्रति तोले की जो 'दर' कही है, तथा दो मास के भीतर स्वर्ण का सौदा संपन्न करने का वादा किया है, उससे कम 'दर' में यदि कोई अन्य व्यापारी इस सौदे को लेना चाहे, तो ले सकता है।"
सभी व्यापारी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। सभी को यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि जिस धनदत्त सेठ की वर्तमान स्थिति दो सौ तोला स्वर्ण खरीदने जितनी भी नहीं है, वह धनदत्त सेठ इतना स्वर्ण लाएगा कहां से ? संभव है उसका पुत्र परदेस से आ रहा होगा ? वह भी कहां से आएगा? वर्षाकाल में उसके जहाज आ नहीं सकेंगे।
कोषाध्यक्ष ने खड़े होकर, धनदत्त सेठ के मुनीम की बात पांच बार दोहराई !
कोई अन्य व्यापारी इससे कम 'दर' में स्वर्ण देने के लिए तैयार नहीं हुआ।
फिर कोपाध्यक्ष ने बिंबिसार की ओर देखकर पूछा-"क्या श्रीमान् सेठ धनदत्त दो महीने के भीतर 'सौ वाह' सोना दे सकेंगे?"
"हां, महाराज..!" "यदि नहीं दे सके तो?" "आप जो दंड देंगे, वह स्वीकार्य होगा।"
कोषाध्यक्ष ने कहा-"राज्य सेठ धनदत्त का सौदा स्वीकार करता है। यदि निर्धारित अवधि में वे अपना वादा पूरा नहीं करेंगे तो उनकी सारी संपति जप्त कर ली जाएगी।"
बिंबिसार बोला-"यह मंजूर है।" महामंत्री ने पूछा--"मुनीमजी ! आपका शुभ नाम ?" "जयकीति...।"
"आप अभी नये आए लगते हैं। आपने हमारे राज्य के महान् व्यापारियों के बीच जो साहस दिखाया है, उससे मेरे दिल में आपके प्रति विशेष आदरभाव उत्पन्न हुआ है। आप मेरी ओर से सेठश्री को कुशल पूर्छ ।” महामंत्री ने कहा।
बिबिसार ने मस्तक नमाया।
और सभा विसर्जित हुई । सभी व्यापारी आश्चर्यचकित होते हुए महामंत्री को नमस्कार कर अपने-अपने वाहन की ओर चल पड़े।
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