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२६० अलबेली आम्रपाली
सभी व्यापारी अपने-अपने वाहन पर आए थे। बिंबिसार अश्व पर चढ़कर आया था।
सभी व्यापारी परस्पर कहने लगे-'यह छोटी वय का लड़का बड़ा तेजस्वी है परंतु धनदत्त दो महीने में इतना स्वर्ण एकत्रित नहीं कर पाएगा। एक ओर वर्षाकाल है तो दूसरी ओर इतना स्वर्ग खरीदने के लिए धनदत्त के पास धन कहां है ?"
दूसरा व्यापारी बोला--"कल संध्या से पूर्व ही यह सौदा छूट जाएगा। प्रतीत होता है कि नये मुनीम ने आवेश में यह सौदा स्वीकार किया है।"
इस प्रकार विविध विचार व्यक्त करते हुए तथा नये मुनीम के साहस पर व्यंग्य कसते हुए सभी व्यापारी अपने-अपने वाहनों में बैठकर विदा हुए।
दिवस का दूसरा प्रहर बीत चुका था। धनदत्त जयकीर्ति की प्रतीक्षा कर रहा था।
बिबिसार सेठ धनदत्त के भवन पर पहुंचा। वह अश्व से नीचे उतरा और अश्व को एक सेवक पीछे बाड़े में ले गया। नंदा ने देख लिया था, इसलिए वह बोली--"बापू ! जयकीर्ति आ गए हैं।" धनदत्त तत्काल उठा और बाहर आया । जयकीति वहां पहुंच चुका था। धनदत्त ने पुछा - "देखा राजसभा का कक्ष?" "हां, सेठजी...।" "कितने व्यापारी आये थे ?" "लगभग साठ व्यापारी होंगे।"
"अच्छा, अच्छा 'अब हाथ-पैर धो लो फिर भोजना पर बैठे-बैठे बातचीत करेंगे।" सेठ ने कहा।
जयकीर्ति अपने कक्ष में गया । कपड़े बदले । हाथ-पैर धोकर वह सेठ के पास आकर भोजन करने बैठा।
सेठ ने पूछा- “राजा को क्या खरीदना था ?" "स्वर्ण ।" जयकीर्ति ने शांतभाव से कहा।
"स्वर्ण ? तब तो राजशेखर सेठ ने यह सौदा स्वीकार किया होगा? कितना स्वर्ण खरीदना था ?"
"सो वाह'..।"
"अहो, इतना स्वर्ण कौन दे सकता है ? सेठ राजेश्वर की भी इतनी हिम्मत नहीं होगी।" ___ जयकीति और धनदत्त सेठ यह चर्चा कर रहे थे और उसी समय नंदा और उसकी मौसी की लड़की भोजन के दो थाल लेकर वहां आ पहुंची।