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अलबेली आम्रपाली २१७ "अच्छा, मैं आपको अधिक प्रसन्न करूंगा।" कादंबिनी ने आनंदपूर्वक कहा। फिर आरामिक की पत्नी उन्हें एक कुटीर के पास ले गई।
कादंबिनी अश्व से नीचे उतरी । कुटीर देखा। उसके दो खंड थे। एक स्नानगृह भी था । उसमें हवा और प्रकाश प्रचुर था । कादंबिनी को वह कुटीर अच्छा लगा। वह बोली-"मांजी ! वर्षाकाल प्रारंभ होने ही वाला है। इसलिए इस कुटीर में ।"
"कुछ भी बाधा नहीं आएंगी। आपके सोने-बिछोने के लिए भी यहां व्यवस्था है।"
"मेरे अश्व के लिए...?"
"मेरे कुटीर के पीछे एक बाड़ा है। दो-तीन अश्व एक साथ रह सकें, ऐसा छप्पर भी है।"
"क्या मेरे प्रयोजन के लिए कोई सेवक भी मिल सकेगा?"
"हां, महाराज ! मेरी कन्या और मेरा पुत्र-दोनों आपके कार्य के लिए योग्य हैं।"
"तो ठीक है । अब स्नान और भोजन-पानी की व्यवस्था कर दो।"
"आप आराम से बैठे। मैं अभी व्यवस्था किए देती हूं।" कहकर मारामिका की पत्नी व्यवस्था करने के लिए वहां से चल दी।
एकाध घटिका में सारी व्यवस्था हो गई। सोने के लिए खाट, बिछौना, जलपात्र आदि आ गए। आरामिका की चौदह वर्ष की कन्या ने स्नान-जल की व्यवस्था कर दी।
कादंबिनी कुछ सोच ही रही थी कि आरामिका की पुत्री ने आकर कहा"महाराज ! स्नानगृह में सारी सामग्री रख दी है।"
"तेरा नाम क्या है ?" कादंबिनी ने पूछा। "श्यामा' 'आपको अभ्यंग करना हो तो मेरा भाई...।" "नहीं, श्यामा ! मैं स्वयं कर लूंगा।"
कादंबिनी कुटीर का द्वार बंद कर स्नानगृह में गई। सारे वस्त्र उतारे और उनको एक ताम्र की कुंडी में पखारे। फिर शरीर पर तेल मर्दन, उबटन आदि कर आनंदपूर्वक स्नान किया । गत आठ दिनों में उसने स्नान नहीं किया था। इसलिए उसने अपनी सघन केश राशि भी स्वच्छ की। फिर अंग-लुंछन से शरीर को पोंछा और बालों को भी पोंछ कर खुल्ला कर दिया।
उसने सुरनंद के कपड़ों में से एक धोती निकाल कर पहन ली। फिर अंगरखा पहना।
इतने समय में आरामिका की पत्नी दो-तीन बार आ गई । कुटीर का द्वार बंद होने के कारण वह चली गई। भोजन तैयार हो चुका था।