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१७४ अलबेली आम्रपाली
का पात्र उपहृत किया।
कुछ ही क्षणों के पश्चात् मीठी मुसकान से वातावरण को मुखरित करती हुई और यौवन की ऊष्माप्रेरक तरंगों से पूरे वातावरण को तरंगित करती हुई कादंबिनी उस खंड में प्रविष्ट हुई।
कादंबिनी को देखते ही शीलभद्र आसन से उठा । उससे पूर्व उसने कादंबिनी को नृत्य में देखा था और तब से ही उससे मिलने की लालसा उसमें समा गई थी। आज कादंबिनी को साक्षात् देखकर उसने सोचा कि कादंबिनी नृत्यांगना के वेश में जितनी मादक लगती थी, उससे सौ गुना मादक वह स्वाभाविक वेश में लग रही है। वह बोला- "देवी की जय हो।"
कादंबिनी ने मुसकराते हुए कहा- "आयुष्मान् की जय-विजय हो।" शीलभद्र अपने आसन पर बैठते हुए बोला-"आज रात को दोनों के मिलन
का..."
बीच में ही कादंबिनी बोल उठी-"प्रिय ! आज तो मुझे क्षमा ही मांगनी पड़ेगी..."
"क्यों?" "आज रात्रि में मुझे नृत्य करना है।"
"बहत अच्छा, मुझे भी आज रात्रि में दूसरा काम है, यह कहने के लिए ही मैं आया हूं.''दो-तीन दिन बाद जो रात तुमको अनुकूल हो...।"
"प्रिय ! आज सोमवार है। बुधवार अथवा शुक्रवार जो भी आपको अनुकूल हो, वही मेरे लिए अनुकूल रहेगा।" कादंबिनी ने मुसकरा कर कहा।
एक परिचारिका मेरेय के दो पात्र लेकर आई। उसने एक पात्र शीलभद्र के हाथ में दिया और दूसरा पात्र कादंबिनी को सौंपा। ___ मैरेयपान करते हुए शीलभद्र बोला- "देवि ! शुक्रवार उत्तम है. मैं भी तब तक एक चिन्ता से निवृत्त हो जाऊंगा' 'आपके सत्कार के लिए मेरा भवन ।"
"प्रिय ! सत्कार नहीं, मिलन कहें 'मस्ती कहें... 'दो यौवनों की एक सरस कविता कहें 'सत्कार भवन में शोभित हो सकता है पर मिलन तो जहां मुक्ति हो, आनंद हो, नीरवता हो वहीं शोभित होता है ।" कादंबिनी ने मेरेय का एक घंट मात्र लेकर पात्र को पास में पड़ी त्रिपदी पर रख दिया।
"ओह ! देवि ! आपने मिलन की सुन्दर कल्पना की है 'आप जहां कहेंगी, वहां हम चलेंगे।" __ "मैं तो वैशाली प्रदेश से परिचित नहीं हूं। यहां आने के पश्चात् मैं तो भवन से बाहर भी नहीं निकली हूं। मैंने सुना है कि वैशाली के पास एक नदी है।"
"हां, बहुत सुन्दर नदी।" "तो हम जलविहार करने निकलेंगे। यौवन और काम को जल से प्रेरणा