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१४४ अलबेली आम्रपाली
"वह परिचय सत्य था और उसी रात्रि में संथागार के उपवन में उसकी मृत्यु हो गई । "
"मृत्यु ! असंभव ! महाराज ! मुझे स्मृति है कि वह नवजवान पूर्ण स्वस्थ और बलिष्ठ शरीर वाला था ।"
चरनायक ने संक्षेप में सारी बात बताई। पर उसका चित्त कादंबिनी के उभरते यौवन में रम रहा था । वह सोचने लगा - काश ! मुझे भी इसका सहवास मिल पाता । उसने मुसकराते हुए कादंबिनी से कहा - " देवि ! जन्म और मृत्यु संसार का चक्र है । जो जन्मता है वह मरता है और जो मरता है वह जन्म लेता है। जन्म के साथ मृत्यु का अविरल साहचर्य होता है। जिस क्षण में जन्म होता है, उसी क्षण से मृत्यु भी होने लग जाती है और एक दिन आता है कि व्यक्ति मृत्यु की गोद में सदा के लिए समा जाता है।"
"पद्मकेतु की मृत्यु रहस्यभरी है। भले हो
...पर देवि ...।"
" आप क्या कहना चाहते हैं, स्पष्ट करें।" कादंबिनी ने कहा । चरनायक क्षण भर मौन रहे और कादंबिनी के मदभरे नयनों को निहारते रहे । मन ही मन सोचा ऐसी रूपवती नारी का सहवास ही स्वर्ग-सुख है । वे बोले – “देवि ! क्षमा करें, मैंने असमय में... | "
"नहीं श्रीमन् ! मुझे आनन्द आया । आप जैसे अतिथि घर पर आये, यह मेरा सौभाग्य है ।"
"यह अतिथि कुछ वजनदार है।" चरनायक ने कहा ।
"एक बार आप अतिथि बनकर देखें ।" कादंबिनी ने कहा ।
"एक दिन अवश्य ही मैं देवी का अतिथि बनूंगा ।" चरनायक बोले ।
पद्मकेतु की आकस्मिक मृत्यु का रहस्य उद्घाटित नहीं हुआ और तब चरनायक सुनन्द आचार्य जयकीर्ति का यथार्य परिचय पाने के लिए आम्रपाली के सप्तभौम प्रासाद में आए।
बसन्त की मोहक संध्या । आम्रपाली एक कुंज में पुष्पशय्या पर लेट रही थी । देखने वाले को यही प्रतीति होती कि आम्रपाली स्वयं पुष्पों का एक ढेर है ।
साथ में एक आसन पर बिंबिसार बैठा था और मंद ध्वनि से वीणा वादन कर रहा था ।
आम्रपाली राग का पान कर रही थी । और उसके नयन प्रियतम के बदन पर स्थिर थे ।
इतने में ही एक परिचारिका ने आकर कहा - "देवि ! चरनायक आर्य सुनन्द आए हैं।"