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अलबेली आम्रपाली १४६
अभिनय कर लोगों के रक्त को चूसने का काम करना पड़ेगा? क्या मैं एक राक्षसी से कम हूं?"
'अरे ! मेरी काया का यह विष क्या कभी नहीं धुल पायेगा?'
भयंकर विषधरों का विष भी उतरता है, मिटता है और मेरे मुख-स्पर्श के विष का कोई उपशमन नहीं कर सकता? कैसी विडंबना।
कादंबिनी के सामने सुदाम का चेहग। आंखें डबडबा आयी। पर... विष की तड़फन से भी विचारों की तड़ फन गहरी होती है। रात्रि के अंतिम प्रहर में कादंबिनी को नींद आई। सूर्योदय हुआ। पर कादंबिनी अभी भी निद्राधीन थी।
इधर गणनायक सिंह सेनापति आचार्य जयकीति की वास्तविक पहचान पाने, छद्म प्रयोजन को आगे कर, आम्रपाली के भवन की ओर प्रस्थित हो गये। ___आम्रपाली का सुखद और विशाल सप्तभौम प्रासाद ! देव-रमणीय और नयनरंजक।
आम्रपाली अपने विश्राम-खंड में बैठी थी। वैद्यराज ने उसे ऊपर चढ़ने या नीचे उतरने की मनाही कर रखी थी।
गणनायक सिंह सेनापति वहां पहुंचे । आम्रपाली ने उन्हें माला अर्पित कर स्वर्ण के आसन पर बैठने का अनुरोध किया।
कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् सिंह सेनापति ने कहा-"पुत्रि! तू एक मालवीय आचार्य के प्रेम में फंसी है, ऐसा मैंने सुना है, और तू निकट भविष्य में माता होने वाली है, यह भी मुझे ज्ञात है। पुत्रि ! नगरवासी लोग आचार्य जयकीर्ति का वीणा-वादन सुनना चाहते हैं। उनके वीणावादन की चारों ओर प्रशंसा हो रही
आम्रपाली ने सहज स्वरों में कहा- "एक कठिनाई है।"
"क्या ?"
"वे आज ही अपने मित्र के साथ आखेट के लिए गए हैं । लगभग एक सप्ताह के पश्चात् वे यहां आयेंगे, तब मैं उनसे पूछकर आपको संवाद प्रेषित कर दूंगी।"
गणनायक मुसकराकर वहां से चल दिए।
बिंबिसार को भवन में रहते अनेक महीने हो गये थे । वे यहां अपनी प्रियतमा के सहवास से परम प्रसन्न थे। एक दिन अचानक उनका एक प्रिय सहचर धनद उनको खोजते-खोजते वैशाली आ पहुंचा और नगर में बिंबिसार को खोजने लगा । वह सर्वत्र भटकता रहा, पर कहीं भी उसे बिंबिसार के निवास का पता नहीं लगा । एक दिन वह सायं नगर-भ्रमण के लिए पांथशाला से निकला और एक पनवाड़ी की दुकान पर पान खाने के बहाने गया। वहां भीड़ लगी हुई थी। लोग गपशप कर रहे थे। वार्ता के विविध प्रसंग चल रहे थे । एक व्यक्ति ने