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१४- अलबेली आम्रपाली
सुदाम के लिए एक-एक पल वर्ष जैसा लगने लगा। प्रतीक्षा का काल बहुत दीर्घ महसूस होता ही है ।
रात्रि का दूसरा प्रहर चल रहा था ।
सुदाम कादंबिनी को लेने उपवन के पिछले द्वार से निकला ।
कादंबिनी तैयार थी ।
उसके मनोहारी पुरुष वेश को देखकर सुदाम चौंका। वह कुछ पूछे इससे पहले ही कादंबिनी बोल उठी - " यशस्विन्! आपकी कहीं निंदा न हो, इसलिए मैंने पुरुष वेश धारण किया है।"
कादंबिनी सुदाम के साथ उसके भवन के पीछे वाले उपवन में पहुंची । चारों ओर सन्नाटा । उपवन के बाहर 'सावधान, सावधान' की आवाज यदा-कदा सुनाई दे रही थी। नीरव एकान्त ।
दोनों अपने-अपने अश्वों से नीचे उतरे। अश्वों को एक वृक्ष के स्कन्ध से बांधा। सुदाम कादंबिनी के साथ अपने भवन में आया। वहां कोई नहीं था । मदिरा का दौर चला ।
'
सुदाम ने कादंबिनी को बाहुपाश में जकड़ लिया और ।
एक क्षण बीता ।
दो क्षण बीते ।
कुछ क्षण बीते ।
बाहुपाश शिथिल हुआ । जकड़न ढीली पड़ी । आंखें बाहर आ गईं। और सुदाम देखते-देखते धरती पर लुढक गया ।
arifaनी ने उसकी अंतिम तड़फड़ाहट देखी ।
सुदाम की काया नीलाभ बन गई थी। उसके मुंह से फेन निकल रहे थे । काबिनी ने पलंग पर बिछी हुई पुष्प की चादर को खींचकर उस निर्जीव शव पर डाल दी और पास में पड़े मैरेय के पात्र को उसके मुंह पर उंडेल दिया । वह शीघ्रता से अपने अश्व के पास आई और भवन की ओर चल पड़ी ।
वह अपने भवन पर आई । दास-दासी जागृत थे । वह मौन भाव से अपने कक्ष में जा सो गई। नींद नहीं आ रही थी । वह विचारों के द्वन्द्व में फंस गई । एक विचार आता है, जाता है। श्रृंखला टूटती ही नहीं ।
आदमी अनर्थ करता है । करते समय वह प्रसन्न होता है । वह प्रसन्नता, कृत्रिम हो या असली, पर अंत में वह उसे शल्य की भांति चुभता रहता है। वह अपने कृत्य के लिए जीवन भर पश्चात्ताप की अग्नि में जलता रहता है ।
कादंबिनी ने सोचा- 'कैसी विडम्बना ! लोगों की जीवन लीला समाप्त कर, अपने जीवन की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना, क्या यही जीवन है ? इस प्रकार अभिशप्त यौवन का भार मुझे कब तक उठाना पड़ेगा ? कब तक ऐसा