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६८ अलबेली आम्रपाली
वे चल रहे थे । चलते-चलते शंबुक एक दूसरी दीवार के पास खड़ा रह गया। उसने दीवार को नमस्कार कर अपना मस्तक झुकाया। फिर अपने दोनों हाथ दीवार के नीचे के भाग में स्थापित किए। कुछ ही क्षणों के पश्चात् दीवार में एक छिद्र हुआ। शंबुक ने एक चाबी निकाली और उस छिद्र में घुमाई । जयकीर्ति (बिंबिसार) आश्चर्यभरी दृष्टि से सब कुछ देख रहा था । दीवार में एक द्वार जैसा हो गया। प्रकाश वहां भी यथावत् था। __ वे दोनों और आगे गए। अनेक आश्चर्यकारी शिल्प-कलाओं का साक्षात्कार करता हुआ जयकीति विस्मय से भर गया।
वे खजाने के पास पहुंचे। विशाल और प्रकाशमय उस खंड में रत्नजटित अलंकारों के ढेर लगे थे । अनेक प्रकार के आयुध और शस्त्रास्त्र व्यवस्थित रखे हुए थे । दुर्योधन की स्वर्णमय गदा, जयद्रथ की लंबी तलवार दिखाते हुए शंबुक ने जयकीति से कहा- "मैं इस गदा को स्वयं नहीं उठा सकता। महाराज दुर्योधन की गदा इतनी भारी है तो भीम की गदा कितनी भारी होगी? ऐसे महान् शक्तिशाली पुरुष आज...?"
बीच में ही जयकीति ने कहा- "सत्य है महाराज ! काल की शक्ति के समक्ष सभी लाचार हैं।"
शंबुक ने कहा--"जयकीर्ति ! इस खजाने से तुझे जो चाहिए, जितना चाहिए वह ले ले।"
"नहीं, महाराज ! मुझे इन अमूल्य वस्तुओं से क्या करना है ?"
"जयकीति ! तूने मेरी पुत्री को जीवनदान दिया है। तुझे जितना दूं उतना थोड़ा है । तुझे यहां से कुछ लेना ही होगा।"
जयकीति ने कहा-"महाराज ! एक वस्तु मांगता हूं।" "अभी मांग लो।" शंबुक ने प्रसन्न होकर कहा।
"महाराज ! मैं एक कलाकार हूं । इन रत्नों का संरक्षण मेरे लिए कठिन है। आप मुझे धनुर्विद्या सिखाने की कृपा करें।"
"तू धनुर्विद्या सीखकर क्या करेगा?" "मुझे उसका शौक है।" "अच्छा" कहकर शंबुक उस खंड से बाहर आया। दोनों आगे बढ़े और चलते चले।
१५. दीपक बुझ गया हृदय पर लगी हुई चोट अनेक बार प्राणघातक होती है। उसमें भी जब हृदय की कल्पना भस्मसात् हो जाती है तब मनुष्य के प्राण सूख जाते हैं । जब मनुष्य की