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१३६ अलबेली आम्रपाली
"सखी ! कसी विचित्रता ! मुझे सहारा देने वाला दूसरा मेरे कोई पुत्र नहीं है।" रानी ने दर्द भरे स्वरों में कहा ।
"महादेवी ! आपको दुःख न हो तो मैं एक बात कहं ।"
"बोल, तेरी बात से मुझे न कभी दुःख हुआ है और न कभी होगा। जो तू कहना चाहती है वह कह ।"
"यदि आप चाहें तो सहारा मिल सकता है।" "कसे?"
"आप नियमित रजस्वला तो होती ही हैं। कामशास्त्र कहते हैं कि जो स्त्री रजस्वला होती है उसमें संतान पैदा करने की योग्यता भी होती है।"
"पगली ! तो मैं इस सत्तर वर्ष की अवस्था में पुत्र-प्रसव कर सकूगी?"
"महादेवी ! बीज निर्जीव हो तो वह भूमि का दोष नहीं है। बीज का ही दोष है । आप इस विषय में महाराज से बात करें। वे यदि आचार्य अग्निपुत्र से विमर्श करेंगे तो अवश्य ही औषधि के प्रभाव से आचार्य महाराजा को संतानोत्पादक बीज से युक्त कर सकेंगे।"
"उत्तम 'सखी ! उत्तम मार्ग है।" रानी त्रैलोक्यसुन्दरी के गमगीन क्षणों में आशा की एक उज्ज्वल रेखा उभर पड़ी। __ रानी ने यह बात मगधेश्वर से कही और उन्होंने आश्रम में जाने की बात स्वीकार कर ली।
रानी निश्चिन्त हो गई।
महाराजकुमार दुर्दम की मृत्यु सर्प-दंश से हुई है, यह घोषणा की गई।
कोई कहता, इस मृत्यु के पीछे कोई राजकीय षड्यन्त्र होना चाहिए। कोई कहता, कादंबिनी के रक्षक यक्ष ने इसके प्राण ले लिये हैं। इन सब बातों के साथसाथ यह हवा भी फैल चुकी थी कि अब महाराजा प्रसेनजित फिर कभी वैशाली की ओर दृष्टिपात नहीं करेंगे। वैशाली के राजपुरुष जानते थे कि रानी त्रैलोक्यसुन्दरी ने अपने पुत्र को मगध का मुकुट मिले इसलिए उसने अनेक युवराजों के प्राण विविध प्रकार से लिये हैं । इसलिए अब वह निराश हो चुकी है और मगधेश्वर का हृदय भी टूट-टूटकर चकनाचूर हो गया है । अब वे वंशाली को रौंदने का विचार कभी नहीं कर सकते।
दुर्दम की मृत्यु के समाचार बिंबिसार को भी मिल गये थे। धनंजय ने कहा था-"महाराज ! प्रकृति का न्याय यहीं का यहीं प्राप्त हो जाता है। कर्म का फल कभी अन्यथा नहीं होता । मुझे लगता है कि दुर्दम की मृत्यु से महारानी की तमाम आशाओं पर तुषारपात हो गया है।"
वैशाली के घर-घर में पहली चर्चा थी दुर्दम की मृत्यु की और दूसरी चर्चा थी कादंबिनी के आगमन की।