________________
अलबेली आम्रपाली १३६
वज्र के कर्णफूल और वज्र की मुद्रिकाएं पहन रखी थीं।
कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ।
तीन बालाओं ने मंगल-गीत गाया। कंठ मधुर और मोहक था । सभी लोग कादंबिनी को देखने के लिए उत्सुक थे । अर्ध घटिका के बाद मंगल-गीत पूरा हुआ। धूम्रावरण में तीनों बालाएं अदृश्य हो गयी और प्रेक्षकों ने देखा-विशाल सरोवर का सुरम्य तट । यह दृश्य अत्यन्त नयनरंजक था।
और तीन नवयौवना नर्तकियां मन्द-मन्द गति से सरोवर के तट की ओर चरणन्यास करती हुई और आतुर नयनों से इधर-उधर देखती हुई आगे बढ़ने लगीं। तीनों की वेशभूषा धीवर परिवार की मदोन्मत्त कन्याओं की थी। तीनों स्वस्थ, सुन्दर, सप्रमाण और गौरवर्ण वाली थीं. और रूपसज्जा से उनका सौन्दर्य और यौवन का उभार शतगुणित हो गया था।
कुछेक प्रेक्षक इस दुविधा में पड़ गए कि इन तीनों में कादंबिनी कौन होगी?
इतने में ही कादंबिनी हाथ में मद्य का भांड लेकर नृत्य भूमि में प्रविष्ट हुई। इसको देखते ही सारे प्रेक्षक स्तम्भित रह गए। रूपवती धीवरा को देखकर उनकी आंखें फटी की फटी रह गई। उसमें रूप था, रूप की माधुरी थी और रूप का विलास था।
सबकी नजरें स्थिर थीं।
प्रेक्षक वर्ग में महाबलाधिकृत का पुत्र पद्मकेतु अपने मित्रों के साथ अगली पंक्ति में बैठा था। उसने कहा-"मित्र ! इसमें पाली जैसे नयन नहीं है । पाली जैसी प्रशान्त माधुरी नहीं है, किन्तु यौवन का यह उन्माद पाली में भी नहीं है।"
मित्र ने कहा-"महाराज! मुझे तो यह पाली से भी सवाई लगती है। इसका साहचर्य।"
इतने में ही धीवर युवक नृत्य मंच पर प्रकट हुआ। कादंबिनी मद्यभांड से प्याला भर-भरकर उसे मद्य पिला रही थी। दोनों के नयनों की, यौवन की और आवेश की मस्ती उभर रही थी।
इस दृश्य ने प्रेक्षकों के दिल को प्रकंपित कर डाला । सभी बेभान होने लगे।
रात्रि के चौथे प्रहर की अर्ध-घटिका बीत गयी थी। कादंबिनी का नृत्य अन्तिम चरण में था । लोग आतुर नयनों से नृत्य देख रहे ये । धीवरा मद्य और रूप के नशे में प्रमत्त बन गयी थी। उसके साथ का नौजवान भी यौवन-मदिरा का पान करने के लिए विह्वल हो रहा था। वह धीवरा को पकड़ने का बारबार प्रयत्न कर रहा था और वह धीवरा सरककर आगे बढ़ जाती थी।
और अचानक धूम्रावरण प्रारम्भ हो गया। नृत्य सम्पन्न हुआ। लोग हृदय पर हाथ रखकर घर गए।