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१२० अलबेली आम्रपाली
"हं, हं.. आचार्य जयकीति क्या कर रहे हैं ?" "आपके खंड में वे आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" "ओह ! यह उत्सव कब तक चलेगा?" "आधी रात तक'।"
"नहीं, मैं अपनी उमंग को इस प्रकार नष्ट नहीं होने दूंगी। उत्सव को शीघ्रता से सम्पन्न कर मुझे महाराज के पास पहुंचना है।"
रात्रि का दूसरा प्रहर पूरा हो गया। तीसरे प्रहर की दो घटिकाएं व्यतीत हो गयीं। बिंबिसार प्रियतमा की प्रतीक्षा कर रहा था। इतने में ही आम्रपाली उस कक्ष में प्रविष्ट हुई। ___"हम बाहर चलें।" कहकर बिंबिसार आम्रपाली को हाथ पकड़कर बाहर
ले गया।
चन्द्र का प्रकाश स्वच्छ और निर्मल था।
फिर दोनों वहां कुछ समय रहकर अपने शयनकक्ष में चले गए। वहां कुछ समय विनोद भरी बातें करते हुए दोनों शय्या में सो गए.'उस समय रात्रि के चतुर्थ प्रहर की दो घड़ियां बीत चुकी थीं और सूर्योदय के पूर्व आम्रपाली चोंक कर उठी। घोर नींद में सोए हुए अपने प्रियतम को झकझोरती हुई बोली"प्रियतम ।"
"क्यों ? क्या हुआ ?" कहता हुआ बिंबिसार उठा। "एक विचित्र स्वप्न देखा है...।" "स्वप्न ? कैसा स्वप्न ?"
"मैं एक सरोवर के किनारे खड़ी हूं. आकाश में पूर्ण चन्द्र चमक रहा है। मैं उसे एकटक देखने लगी. उसी समय अचानक तारे की तरह चन्द्र टूटा। मैं चौंकी और उसी क्षण चन्द्र मेरे मुंह में प्रविष्ट हो गया।"
"स्वप्न अति उत्तम है । सम्भव है कि..।" "क्या ?"
"स्वप्न कभी-कभी भविष्य की बात कह जाता है. अब तू सोना मत । अपने इष्टदेव का स्मरण कर । प्रातः स्वप्न पाठक को बुलाकर इस स्वप्न का अर्थ पूछेगे।"
आम्रपाली बोली-"आज मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न है। मुझे प्रतीत हो रहा है, मानो शरीर में नयी चेतना व्याप्त हो रही हो।"
"प्रिये ! स्वप्न का फल उत्तम होगा।"
आम्रपाली शैया से उठी और अपने इष्ट को नमस्कार कर महामन्त्र का जाप करने बैठ गयी।