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१३० अलबेली आम्रपाली
और उसी समय लज्जारक्त वदन से सुशोभित, मन्द-मन्द गजगति से चलती हुई कादंबिनी ने उस कक्ष में प्रवेश किया।
___ आशाओं के ताने-बाने बुनता हुआ दुर्दम आसन से उठ खड़ा हुआ। कादंबिनी निकट आकर बोली-"आयुष्यमान् की जय हो । आप जैसे कलासेवी से मिलकर मुझे प्रसन्नता होती है । आप आसन पर विराजें।"
"देवि ! आज मैं धन्य हो गया।" कहता हुआ दुर्दम आसन पर बैठ गया। "आपका परिचय...?" देवी ने पूछा।
यह सुनते ही दुर्दम अकुला गया। उसने तत्काल चेतना को सम्भालकर कहा-"मैं अपना परिचय क्या दं? मैं मालव का एक राजपूत हं । मैं कला-प्रेमी हूं। मैंने आपका नृत्य देखा और साक्षात् दर्शन की उत्कण्ठा जाग उठी। वास्तव में आपका नृत्य स्वर्गलोक की मेनका के नृत्य की स्मृति कराता है।" ___ कादंबिनी ने सोचा-इस युवक की भाषा मधुर है, परन्तु यह मालवीय नहीं है। कोई भी हो, मुझे क्या? ____ वह बोली-"श्रीमन ! मैं परदेशी नर्तकी हूं। मेरा नृत्य आपको पसन्द आया, यह मेरा सौभाग्य है।" ___ कादंबिनी बातों ही बातों में दुर्दम को उत्तेजित करने लगी। नाना प्रकार की बातें होती रहीं। बीच-बीच में मैरेय का पान भी चलता रहा।
दुर्दम के चित्त की विह्वलता अति उग्र बन रही थी। उसने सोचा, कादंबिनी से मूल बात कैसे की जाए? वह सोचता रहा ।
वह तत्काल बोल उठा-'देवि ! मैं आपकी कला का सत्कार करने आया हूं। आपको बुरा न लगे तो एक बात कहूं...''
"प्रिय ! मैं आपकी भावना का अवश्य सत्कार करूंगी। आज मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं। यहां आने के पश्चात् आज ही तो यौवन को यौवन का सहवास मिला
"मैं धन्य हुआ।" कहकर दुर्दम ने अपने कमरपट्ट से रत्नजटित हार निकाला और देवी कादंबिनी के आगे उपहृत कर दिया।
"प्रिय ! आप ही इस हार से दासी को अलंकृत करें।" यह कहकर कादंबिनी आगे आई।
दुर्दम हार को उठा कादंबिनी के निकट आकर बोला- "रूप का सत्कार करू या...।" ___"आज आप मेरे प्रथम माननीय अतिथि हैं। आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें । आप पूर्ण स्वतन्त्र हैं।" कादंबिनी के ये वाक्य सुनकर दुर्दम हर्ष-विभोर हो गया। उसने रत्नजटित हार कादंबिनी के गले में पहना दिया।