________________
अलबेली आम्रपाली ७३
को सिखा दिये थे। वे दोनों प्रतिदिन वन में जाते और शंबुक बिंबिसार को धनुर्विद्या के विविध प्रयोग करके दिखाता। ऐसे तो बिंबिसार धनुर्विद्या जानता था, फिर भी उसे शंबुक के माध्यम से बहुत कुछ सीखने को मिला। शंबुक पूर्ण मनोयोग से बिंबिसार को सब रहस्य बताता रहा, केवल धनुर्विद्या के साथ जुड़ी हुई मंत्रविद्या बिंबिसार के लिए असाध्य बन गयी, क्योंकि उसे सीखने के लिए दो-तीन वर्ष लगाने अपेक्षित थे ।
धनंजय भी वहां से शीघ्र प्रस्थान करना चाहता था, क्योंकि राजगृह से चलने के पश्चात् उसने महाराज प्रसेनजित को कोई समाचार नहीं भेजे थे । वह सोच रहा था, महाराज प्रसेनजित बहुत बेचैनी अनुभव करते होंगे । इसीलिए वह बार-बार बिंबिसार से प्रार्थना करता । बिबिसार कहता - " मित्र ! स्नेह की उपेक्षा करना महान् पाप है । राक्षसराज शंबुक के स्नेह का अनादर करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा ।"
बिबिसार ने एक रात शंबुकरांज के परिवार के समक्ष वीणावादन कर स्नेहयुक्त स्वरों में कहा "महाराज ! आपकी ममता का अनादर करना मेरे लिए अशक्य है, पर मेरा चित्त घर-परिवार की ओर लगा है। यदि आप कृपा करें तो..."
" मित्र ! मैं तेरी अकुलाहट को समझता हूं । श्रावणी पूर्णिमा को यहां एक मेला लगेगा। शंबुक वन में रहने वाले सभी लोग यहां एकत्रित होंगे। उस उत्सव का आनंद ही कुछ और है। फिर मैं तुझे यहां से विदा कर दूंगा ।"
१६. श्रावणी पूर्णिमा
श्रावण की पूर्णिमा |
संध्या से पूर्व ही शंबुकवन में फैली हुई छोटी-मोटी पल्लियों से सभी राक्षस परिवार शंबुकवन की राजधानी में आ गए ।
रात्रि का समय प्रारंभ हुआ। देवी के मंदिर के विशाल प्रांगण में सभी आ पहुंचे । वर्षा रुक गई थी। राक्षसों का यह अटूट विश्वास था कि श्रावणी पूर्णिमा की रात में वर्षा नहीं आनी चाहिए और यदि वर्षा होती है तो वह अनिष्ट की सूचना है |
रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा होने वाला था। शंबुक अपने परिवार के साथ वहां आ पहुंचा। उसके साथ बिंबिसार, धनंजय और दोनों परिचारक थे । बिबिसार ने देखा, आबालवृद्ध वहां मद्यपान कर पागलों की भांति घूम रहे हैं ।
स्त्रियां भी मद्यपान में मत्त थीं। कहीं सहनृत्य हो रहा था, कहीं आपसी