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७४ अलबेली आम्रपाली
छेड़छाड़ हो रही थी, कहीं पराक्रम और शौर्य के प्रतीक रूप छुरिकायुद्ध, कृपाण - युद्ध और मल्लयुद्ध हो रहे थे ।
राक्षस स्त्रियां कृपाणयुद्ध और छुरिका- युद्ध में तन्मय बन रही थीं । योवन और श्यामवर्ण के मद से मदोन्मत्त स्त्रियां रोमांचित करने वाले छुरिका-युद्ध कर रही थीं । fafaसार और धनंजय घूम-घूमकर विविध प्रयोग देख रहे थे । उन्हें प्रतीत हुआ कि सभी राक्षस, राक्षस-स्त्रियां और बालक युद्ध कला में निपुण हैं । रात का अंतिम प्रहर ।
fafaसार ने रात के अंतिम प्रहर में सभी राक्षसों को वीणावादन सुनाया । वीणावादन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष बहुत प्रसन्न हुए ।
उत्सव धारणा से भी अधिक सफल रहा ।
सूर्योदय हुआ। तीन दिन और बीत गये। चौथे दिन शंबुक ने भावभरें हृदय से बिंबिसार को विदा किया। उस समय शंबुकराज ने बिबिसार को एक मूल्यवान मोतियों की माला और एक व्यक्ति उठा न सके, उतना स्वर्ण दिया । धनंजय और दूसरे दो परिचारकों को भी स्वर्ण के अलंकार भेंट स्वरूप दिये । वहां से विदा होते समय बिंबिसार का मन अत्यन्त वेदना अनुभव कर रहा था। जहां स्नेह होता है वहां संताप भी होता है ।
सजल नयनों से बिंबिसार वहां से विदा हुआ । शंबुक तथा कुछ सैनिक साथ में चले और वन की सीमा तक साथ रहे। सीमा पर आकर शंबुक ने बिंबिसार वैशाली की सीमा की पूर्ण जानकारी दी ।
ffer ने प्रस्थान से पूर्व शंबुकराज के दोनों हाथों को पकड़कर कहा"महाराज ! मैं आपको कभी भूल नहीं पाऊंगा।"
" मित्र ! मैं भी तुम्हारे सहवास की विस्मृति नहीं कर सकूंगा। मेरी एक प्रार्थना है कि जब तुम्हारा विवाह सम्पन्न हो जाए तब दोनों पति-पत्नी मेरे यहां आना । मैं तुम्हें अपनी नामांकित अंगूठी दे रहा हूं। इस मुद्रिका को मेरा कोई भी राक्षस देखेगा तो वह प्रेमपूर्वक तुम्हारा सत्कार करेगा" कहकर शंबुकराज ने अपनी मुद्रिका fafaसार को दी ।
बिबिसार ने इस स्नेहदान को ले, मस्तक पर चढ़ाया। वह उस मुद्रिका को अंगुली में पहन नहीं सका, क्योंकि उसका अंगूठा भी उसके लिए छोटा पड़ रहा था ।
बिबिसार अपने साथियों और सामान के साथ अश्वों पर चढ़ वहां से आगे
बढ़ा ।
इधर आम्रपाली ने पितृशोक को सम्पन्न कर दिया था। सप्तभौम प्रासाद