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अलबेली आम्रपाली ६७
होता हूं। फिर मैं तेरा हाथ पकड़ लगा। पहले तू अपने सिर को अन्दर डालना।"
"जी"-जयकीति ने कहा।
शंबुक सावधानी पूर्वक अंदर घुसा । अपने सारे शस्त्र साथ में थे। फिर उसने जयकीर्ति को भी अंदर खींच लिया। ___ अब दोनों भूगृह की सीढ़ियां उतरने लगे। बीस सीढ़ियां उतरे ही थे कि वह द्वार अपने आप बंद हो गया।
वे और नीचे गए। सघन अंधकार । परन्तु राक्षसराज की तेजस्वी और चमकीली आंखें सब कुछ देखने में समर्थ थीं।
__ आगे चलकर शंबुक एक दीवार के पास खड़ा रहा और बोला-"जय अलंबुष, जय अलंबुष ।"
तत्काल प्रतिध्वनि सुनाई दी।
फिर शंबुक ने उस दीवार के निश्चित स्थान पर हाथ रखा। कुछ ही क्षणों में दीवार में एक छिद्र हो गया । शंबुक ने अपनी तर्जनी अंगुली उस छिद्र में डाली
और तीन बार तीन दिशाओं में उस अंगुलि को दबाया और उसी समय बिना । किसी शब्द के पूरी दीवार एक ओर खिसक गई।
शंबुक ने भीतर देखा । प्रकाशमय स्थान था। अंदर प्रविष्ट हुए। खिसकी हुई दीवार पुन: स्थान पर लग गई । शंबुक ने जयकीर्ति की आंखों से पट्टी हटाते हुए कहा -"मित्र ! अब हम उस खजाने के पास आ गए हैं जो विस्मयकारी और धन से भरा हुआ है । ऐसा खजाना सम्राटों के पास भी दुर्लभ है । यह अलंबुष का महान् खजाना है।"
जयकीति ने देखा। एक मार्ग दृग्गोचर हो रहा था। उसने पूछा"महाराज ! क्या हम भूगृह में हैं ?"
"हां, अभी हमें आगे और चलना है।"
"पर, यह प्रकाश कहां से आ रहा है ? प्रकाश को देखकर मेरा मन आश्चर्य मे भर गया है।"
"जयकीति ! यह आश्चर्य केवल तेरा ही नहीं है, हम भी इस प्रकाश को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हैं । श्रीकृष्ण-युग के महान् शिल्पी महात्मा मयदानव ने इस भूगृह का निर्माण किया है और उसने इसमें ऐसी व्यवस्था की है कि बारह महीनों इसमें सदा प्रकाश रहे । यह प्रकाश किसका है ? कहां से आता है ? यह हम भी नहीं जान सके हैं। प्रकाश के साथ-साथ इस भूगृह में हवा और पानी का भी प्रबन्ध है । इसमें वर्षों तक कोई निवास करना चाहे, तो भी कोई बाधा नहीं आ सकती। यह गुप्तगृह छोटा नहीं है, चक्रवर्ती के प्रासाद जैसा विशाल और भव्य है।"