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७० अलबेली आम्रपाली पड़ेगा। वैशाली के युवकों के बीच अपने यौवन बिछाती हुई कन्या को देखने के बदले अंधा हो जाना अच्छा है अथवा मृत्यु का वरण श्रेष्ठ है। ___ आषाढ़ की पूर्णिमा आयी। महानाम की चिंता शतगुणित हो गयी। उसके मन में अनेक विचार उमड़ रहे थे । उमने आत्महत्या करने की बात भी सोची, पर उसमें जैनत्व के संस्कार कूट-कूट कर भरे हुए थे। जैन परंपरा में आत्महत्या को जघन्यतम पाप माना है । अर्हत् को देव मानने वाला कोई भी जैन उपासक आत्महत्या के जघन्य कार्य को नहीं कर सकता।
महानाम जैन था । वह साधुओं की संगति करता था। जैसे ही आत्महत्या का विचार आया, वह संभल गया। उसने सोचा, सब कुछ छोड़कर मैं मुनि क्यों न बन जाऊं । पर उसका मन बोल उठा, भागवती दीक्षा कोई मामूली बात नहीं है। इसको ग्रहण करने में केवल उमंग ही काम नहीं आती, उसके लिए मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक शक्ति अपेक्षित होती है। ___ एक विचार यह भी आया कि श्रावस्ती नगरी में अभी महात्मा बुद्ध विचरण कर रहे हैं। क्यों न मैं उनके संघ का भिक्षु बन जाऊं ? किन्तु आयु का शेष कहकर मुझे भिक्षु संघ में प्रविष्टि न दें तो?
इस प्रकार अनेक विचार महानाम के मन में आ-जा रहे थे । अनेक बार वह अपनी प्रियतमा के चित्र के सामने खड़ा रहकर आंसू भरे हृदय से कहता- "देवि ! मुझे इस संताप से मुक्त कर । तू जहां है, वहां मुझे ले जा । इस प्रिय कन्या के विषय में मैं जो कुछ सुनता हूं, वह सह नहीं सकता। मैं इसके साथ कैसे रहूंगा ? पद्मा ! तू मुझे भी अपने पास बुला ले।"
ऐसे अनेकविध विचार आते और बिजली की भांति चमक-दमक दिखाकर अदृश्य हो जाते।
आर्य महानाम अपनी शय्या पर सो रहा था । हृदय पर दबाव बढ़ रहा था। वह उसे असह्य लगा। वह बार-बार अपने हाथ-पैर पछाड़ रहा था।
उसकी सेवा में एक दास खड़ा था। उसने पूछा--"महाराज ! क्या है ? जल लाऊं?"
महानाम ने इशारे से मौन रहने को कहा । वेदना तीव्र हो रही थी । उसे लगा आज की रात जीवन की अन्तिम रात है। प्रियतमा ने प्रार्थना सुन ली है।
दास अपने स्वामी की इस बेचन अवस्था को देख नीचे के भाग में दौड़ादौड़ा गया। वहां जो पुरुष थे, उन्हें ऊपर आने को कह, तत्काल ऊपर आ गया। वे सब आये । महानाम का मुख्य परिवार भी आ गया।
एक रथ वैद्यराज को बुलाने भवन से बाहर निकले उससे पूर्व ही महानाम का अन्तिम श्वास पूरा हो गया। महानाम का नामशेष हो गया।
उस समय दीपमालिकाओं के भरपूर प्रकाश में आम्रपाली अपने सप्तभौम