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अलबेली आम्रपाली ४१
"नहीं।"
"तब तो यह कार्य राजकुमार दुर्दम को ही करना पड़ेगा। मुझे विश्वास है कि दुर्दम राजकुमार अवश्य ही राक्षसराज शंबुक का वध करने में सफल होगा", रानी ने कहा।
औषध का प्रभाव प्रसेनजित के रक्ताणुओं में प्रारम्भ हो चुका था। वे पलंग पर बैठते हुए बोले-"मुझे भी ऐसा ही विश्वास है । दुर्दम में अपने निश्चित कार्य को करने की धुन है । वह मन्त्रियों की सलाह पर विशेष ध्यान नहीं देता। दो-चार वर्षों के पश्चात् उसे ही तो यह राज्य सौंपना है।"
रानी पलंग पर बैठती हुई बोली-"महाराज ! श्रेणिक को देश से निष्कासित करने के कार्य के उपाय की क्रियान्विति कल मध्य रात्रि में होगी।"
"कल ही? इतनी जल्दी ?" "हां, विलम्ब उचित नहीं होगा।"
"प्रिये ! तेरी बुद्धि के सामने सारे मन्त्री भी फीके हैं"-कहकर प्रसेनजित ने रानी का हाथ पकड़ा।
मौषधि का प्रभाव प्रारम्भ हो गया था।
मनुष्य को औषधि खाकर यौवन का अभिनय करना पड़े तो इससे और बड़ा अभिशाप क्या हो सकता है।
किन्तु कामशक्ति अन्धी होती है। वह 'बेचारी' होने पर भी भयंकर होती है। अनेक मुनि भी कामजित् नहीं हो सके । यह कामशक्ति अनेक घोर तपस्वियों के तप को पाताल पहुंचा कर ही कृतार्थ होती है।
कामराग के स्वरूप का पूरा-पूरा भान होने पर भी मनुष्य इसी में तृप्ति मानता है।
श्यामा ने रानी के समक्ष जिस दास का जिक्र किया था, वह वास्तव में उसका दास नहीं था, उसकी शारीरिक क्षुधा को शान्त करने का साधन था। श्यामा उसकी सुरक्षा सावचेती से करती थी। वह दास भी श्यामा के प्रत्येक कार्य को करने में तत्पर रहता था।
दास को उत्तम भोजन मिलता, मैरेय मिलता और विलास भी मिलता। एक दास को इससे अधिक और क्या चाहिए ?
और जब श्यामा यहां आयी थी तब वह अपने पति के साथ थी। पति बेचारा दो वर्ष कुशाग्रपुर में रहने के पश्चात् मृत्यु का भोग बन गया था। उस समय श्यामा पूरे यौवन से मदमाती थी। वह राजमहिषी की प्रीतिपात्र सखी थी। सखी से जो रानी चाहती वह मिल जाता था। हां, इसका वर्ण गेहुंआ था पर इसके यौवन का आकर्षण कम नहीं था। इसका शरीर सुगठित, आनन कमनीय और आंखें काममद से भरी पूरी थीं।