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अलबेली आम्रपाली ४६ चादर थी। फिर भी यहां एक वस्तु ऐसी थी जो राजभवन में नहीं थी। वह थी शान्ति, जीवन को तृप्त रखने वाली शान्ति ।
बिंबिसार और उसके साथी भोजन से निवृत्त होकर सो गये।
दूसरे दिन मध्याह्न के समय वर्षा रुकी और वे वहां से आगे चल पड़े। रास्ते में बिबिसार ने कहा- "धनंजय ! हमें गंगा नदी के उस पर जाना है । मैंने सुना है कि वहां शांडिल्य मुनि का भव्य आश्रम है। जीवन को प्रेरित करने वाला एक तपोवन है।"
चलते-चलते वे आश्रम में पहुंचे। वहां के व्यवस्थापक और अधिष्ठाता मुनि शिवभट्ट ने उनका स्वागत किया। उन्हें एक कुटीर में रहने के लिए कहा।
वहां दो दिन रहकर बिंबिमार व्यथित हो गया । आश्रम सुन्दर था। पर केवल ब्राह्मण ही वहां प्रवेश पा सकते थे, दूसरे नहीं। यह कंसा अन्याय । बिंबिसार उस आश्रम की व्यवस्था से तिलमिला उठा।
तीसरे दिन वे वहां से चले और मात-आठ कोग चलकर एक क्षुद्र पल्ली में विथाम किया । वहां से वे आगे चले।
धनंजय बोला-"महाराज ! इस ओर शंबुक वन है। रास्ते में कोई पल्ली नहीं है। इसलिए हम।"
बीच में ही श्रेणिक ने हंसते हुए कहा ---"मित्र ! शांडिल्य आश्रम से तो शंबुक वन उत्तम होगा। वहां जातीय दीवारें नहीं होंगी।"
"महाराज ! शंबुक वन अत्यन्त भयंकर है । राक्षसराज शंबुक वहां रहता है और उस वन में गया हुआ पथिक पुनः जीवित बाहर नहीं आ सकता।"
"धनंजय ! लोककथा सर्वाश सत्य नहीं होती।"
वे आगे बढ़ रहे थे । गाज-बीज के साथ प्रलयंकारी वर्षा प्रारम्भ हो गयी। आस-पास में कोई आश्रय-स्थान नहीं दिखायी दिया। वे चलते रहे।
धनंजय ने कहा--. "कोई अलग-थलग न चले । चारों अश्व साथ-साथ रहें।
किन्तु अश्व कोई निर्जीव या यंत्र तो नहीं हैं । आंधी में अश्व चमक उठे। घोर अंधकार व्याप्त हो गया था। गंगा का किनारा तो बहुत दूर रह गया था। सामने शंबुक वन था। अश्व किस ओर जा रहे हैं, कोई नहीं जानता था।
चार घटिका के पश्चात् चलते-चलते वे शंबुक वन में प्रविष्ट हो गये। नियति का चक्र ! नहीं चाहते हुए भी शंबुक वन ने उनको खींच लिया।
११. शंबुक शंबुक वन । राक्षसराज शंबुक का आवास-स्थल । नाम सुनते ही लोगों के प्राण गले में अटक जाते थे। बड़े-बड़े पराक्रमी और भुजवली व्यक्ति भी जहां