________________
५६ अलबेली आम्रपाली
'मेरी पुत्री तीन महीनों से निद्राधीन है। केवल मध्यरात्रि में एक बार जागती है और उसी समय भोजन कर सो जाती है। किसी भी उपाय से वह फिर नहीं जागती । यदि तू उसको जगाने में सफल हो जाएगा तो मैं तुझे मुंहमांगा स्वर्ण
दूंगा।"
"महाराज की जय-विजय हो । आप जब आज्ञा देंगे, यह सेवक तैयार है । पारितोषक की कोई लालसा नहीं है।"
'तो कल प्रातः तैयार रहना।"
"जैसी आज्ञा..." कहकर बिबिसार ने मस्तक नवाया। धनंजय ने भी नमस्कार किया।
राक्षसराज ने कहा- "जयकीति ! तेरे रहने की व्यवस्था मैंने अपने निवासस्थान पर कर दी है । तेरे साथियों को तथा सामान को सेवक ले आएंगे । तू मेरी इस दासी के साथ जा।"
१२. महाघोष राक्षसराज शंबुक के पैतालीस वर्ष की मात्र पांच रानियां थीं। किन्तु उपपत्नियां अनेक थीं। वे सब तरुण थीं । वे तरुणियां प्राय: परिचारिकाओं के रूप में भवन में रह रही थीं। राक्षसराज के केवल दो सन्तानें थीं। एक तो अठारह वर्ष की कन्या और एक दो वर्ष का पुत्र था । कन्या का नाम प्रियंबा था। ___ कन्या स्वस्थ थी। कोई खास रोग नहीं था। अभी-अभी तीन माह पूर्व एक दिन सायंकाल के समय वह बैठी बातें कर रही थी। अचानक उसे जंभाइयां आने लगीं और तब वह निद्राधीन हो गयी । दो दिन तक वह निरन्तर सोती रही। सभी ने यह माना कि यह सम्भवतः थककर सोयी है, इसलिए गहरी नींद ले रही थी। जब तीसरे दिन अनेक प्रयत्नों के बावजूद नहीं जागी, तब सब चिन्तित हो गये । राक्षसराज का प्रमुख वैद्य उसी नगरी में रहता था। वह आया । नाड़ीपरीक्षण करने के बाद भी उसे कोई रोग ज्ञात नहीं हो सका । फिर भी उसने अनेक जड़ी-बूटियों के प्रयोग किए, पर नींद नहीं टूटी । अन्यान्य अनेक उपचार हुए।
राक्षसराज ने अपनी कुलदेवी की आराधना की । विविध प्राणियों की बलि दी गयी । एक महीने के पश्चात् इन प्रयोगों का यह परिणाम हुआ कि प्रियंबा मध्यरात्रि की वेला में एक बार जागती, मल-मूत्र विसर्जित करती, भोजन करती और फिर सो जाती । वह न किसी से बोलती और न किसी की ओर देखती । यह क्रम चलता रहा। सबसे बड़ी कठिन बात थी कि उस वन-प्रदेश में कोई भी दूसरा वैद्य आने से हिचकता था । राक्षसराज के समक्ष कौन आये ! आज तक उस वन में गया हुआ मनुष्य फिर नहीं लौटा ।