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अलबेली आम्रपाली ५६
गुरु ने यह भी कहा था कि इस राग को कहीं भी प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। पर ।
उस समय राक्षसों का युग समाप्त-प्राय था। केवल शंबुक वन में यह अवशेष रह गया था। दक्षिण भारत के पहाड़ी प्रदेशों में यत्र-तत्र वे रह गये
जिस समय संसार पर राक्षस जाति का वर्चस्व था, पराक्रमी और शक्ति सम्पन्न राक्षस देवताओं को भी आकुल-व्याकुल और स्थान-च्युत कर देते थे, उस समय शुक्राचार्य ने महाघोष राग का प्रवर्तन किया और वह राग यौवन काल में क्रीड़ा कर रहा था। जैसे-जैसे राक्षस जाति का ह्रास होता गया वैसेवैसे राग की विस्मति भी होती गयी।
बिंबिसार ने श्रद्धापूर्वक महाघोष राग की स्वर लहरियां उत्पन्न की। महाघोष राग का स्वरूप ही ऐसा भयंकर होता है कि सुनने वालों के ज्ञानतन्तु मस्तिष्क में हलचल पैदा कर देते हैं।
एक घटिका बीती। राग अपने पूर्ण स्वरूप में नाच रही थी। वहां उपस्थित राक्षसराज की रानियां और दासियां उस राग की लहरियों को सहन न कर सकने के कारण बार-बार उठतीं और नाचने के लिए तत्पर हो जातीं। किन्तु घोर निद्रा में सो रही कन्या को देख वे ठिठक जातीं और पुन: अपने आसन पर बैठ जातीं । यही स्थिति शंबुक की भी हो रही थी। महाघोष राग का आन्दोलन उसके प्राणों को चंचल कर देता था और वह बार-बार खड़ा हो जाता था।
धनंजय पर भी यही प्रभाव हो रहा था। वह बार-बार प्रियंबा और बिंबिसार की ओर देखता था।
यौवनकाल सदा अनोखा होता है। महावीणा पर यौवनकाल थिरक रहा था। निद्राधीन प्रियंबा का मस्तक यदा-कदा प्रकम्पित होता था। बिबिसार को यह सब ज्ञात नहीं था। वह आंखें बन्द कर तन्मयता से राग की आराधना कर रहा था। धनंजय बार-बार प्रियंबा में होने वाले परिवर्तनों की ओर देख रहा था।
तीन घटिकाएं पूरी हुई।
बिबिसार ने वीणा के दो ग्राम उद्घाटित किये और कुछ ही क्षणों के पश्चात् प्रियंबा किसी भयंकर स्वप्न को देखकर चौंक पड़ी हो, इस प्रकार वह चौंककर बैठ गयी और आंखें फाड़-फाड़कर देखने लगी। राक्षसराज भी यकायक खड़ा हो गया। 'रानियां भी खड़ी हो गयीं।
प्रियंबा के मुंह से मां-मां की आवाज निकली । उसकी मां आये, उससे पहले ही प्रियंबा अपनी मां के पास जाकर उससे लिपट गयी । शंबुक भी कन्या की ओर बढ़ा।