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६२ अलबेली आम्रपाली
निश्चिन्त रह । तुझे मैं एक विशेष चीज दिखाऊंगा । कल हम एक विशेष स्थान पर जाएंगे ।"
दूसरे दिन ।
शंबुक अपने पांच महारथियों के साथ तैयार हो गया और बिंबिसार और धनंजय भी तैयार हो गए ।
ffer और धनंजय को तैयार खड़े देखकर शंबुक बोला - " मित्र ! तेरा यह साथी यहीं रहे तो अच्छा रहेगा ।"
" जैसी आपकी आज्ञा । परन्तु इससे कोई भय नहीं है । यह मेरा अतिविश्वासपात्र साथी है ।"
"भय की बात नहीं है । मैं तुझे अपना गुप्त धनभंडार दिखाना चाहता हूं । तेरी इच्छा है तो इसको साथ भले ही ले ले।"
ffer ने तत्काल धनंजय को वहीं रुकने के लिए कहा । धनंजय शंबुक को नमस्कार कर लौटा, पर उसका मन अत्यन्त आकुल व्याकुल था । उसने सोचा, राक्षसजाति का क्या विश्वास । राक्षस कुछ भी कर सकते हैं ।
और शंबुक बिबिसार को साथ ले नगर के बाहर निकल गया ।
शंबुक के सभी पांच अंगरक्षक विशेष शस्त्रों से सज्जित थे। शंबुक के पास भी एक तेजस्वी धनुष्य था । उसका तूणीर स्वर्णमय था । उसमें स्वर्णरंगी बाण भरे थे ।
एक आध कोस जाने के बाद वे एक गहन वन में प्रविष्ट हुए । वर्षा शान्त हो गई थी, पर सारे मार्ग पंकिल थे । आकाश में सूर्य चमक रहा था । पर उसकी तेजस्वी किरणें पर्याप्त रूप से वनप्रदेश में प्रवेश नहीं कर पा रही थीं। झाड़ी सघन और वृक्ष विशाल थे ।
दो रक्षक आगे चल रहे थे। उसके पीछे शंबुक और जयकीर्ति और फिर तीन अंगरक्षक । सभी अपने-अपने अश्वों पर धीरे-धीरे उस पंकिल मार्ग से आगे बढ़ रहे थे ।
बिबिसार से कहा - " मित्र ! धनुविद्या का तुझे परिचय है ?" "नहीं, महाराज! "
"तेरे पास धनुष्य बाण तो है ।" हंसते-हंसते शंबुक ने कहा ।
"हां, महाराज ! यह मात्र प्रवास के लिए उपयोग में आता है ?" बिंबिसार ने कहा ।
"तेरी इच्छा होगी तो मैं तुझे धनुविद्या सिखाऊंगा। मेरा प्रत्येक सैनिक महान धनुर्धर है। प्राचीन काल की धनुर्विद्या आज भाग्य से ही कहीं देखी जा सकती है । किन्तु हम राक्षसों ने इसका संरक्षण किया है ।" शंबुक ने कहा ।