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अलबेली आम्रपाली ५३
और कोई वस्त्र शरीर पर नहीं था । पैरों में चांदी की नूपुर, हाथ में विविध प्रकार की चूड़ियां और गले में प्रवाल, मोती आदि की मालाएं थीं ।
तरुणी ने पानी रखकर एक बार प्रवासियों पर दृष्टि डाली और चली
गयी ।
उसी समय तरुणी के साथ दो प्रोढ़ राक्षस नारियां हाथों में दो-दो थाल लेकर उस खण्ड में आयीं । तरुणी के हाथ में चार लोहपात्र थे। एक पात्र में दूध भरा था। उसने इशारे से भोजन करने के लिए कहा ।
विविसार उनके इशारे से समझ गया । चारों भोजन करने बैठे ।
fafबसार ने देखा कि प्रत्येक थाल में एक मोटा-मोटा रोट है। दो प्रकार के शाक हैं जो अनजाने हैं । एक कटोरे में पकाया हुआ मांस है ।
बिंबिसार ने ऐसे मोटे रोट कभी देखे तक नहीं थे । खाने की बात तो दूर रही । उसने रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा । तरुणी ने चारों के सामने एक-एक लोह पात्र रखा। और उसमें दूध उड़ेला । दूध गाढ़ा और मधुर था । राक्षसों में गायों से भी अधिक महत्त्व होता है भैंसों का । वह दूध भैंस का था । बिंबिसार ने तरुणी की ओर देखकर कहा - "देवि ! तुम्हारा नाम क्या है ?"
"चरिता..." तरुणी ने मुसकराते हुए उत्तर दिया ।
कड़कड़ाती भूख थी । चारों ने उस मोटे और कठोर रोट को खाना प्रारंभ किया। दूध के साथ उसे खाया ।
बिबिसार ने मांस का कटोरा पहले ही अलग रख दिया था। वह शाकाहारी था। मांसाहार उसके लिए त्यक्त था । उसमें जैनत्व के संस्कार थे ।
मांसाहार मानसिक वृत्तियों को बिगाड़ता है और मादकता पैदा करता है, यह वह जानता था ।
तरुणीने बिंबिसार की ओर देखकर कहा - " महाशय ! आप मांस क्यों नहीं खाते ? यह हरिण का ताजा मांस है ।"
बिबिसार बोला - "देवि ! दूध और रोट में जो मिठास है उसके समक्ष सारी चीजें फीकी हैं ।"
इतने में ही दूसरी दो दासियां चार रोट और भात लेकर आयीं । वे आश्चर्यचकित रह गयीं यह देखकर कि जो पहले परोसा गया था, उसमें से आधा भी नहीं खाया गया है ।
चरिता बोली - " महाशय ! आप सब खाने में बहुत मंद और कमजोर लगते हैं । "
"हां, देवि ! हम इस पूरे रोट को तो खा ही नहीं सकते ।" यह सुनकर वह तरुणी और अन्य नारियां खटखटा कर हंस पड़ीं । चरिता ने कहा - "तो फिर