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अलबेली आम्रपाली ५१
"मैं एक संगीतज्ञ हूं । महाराज शंबुक के चरणों में अपनी कला प्रस्तुत कर उनको प्रसन्न करना चाहता हूं। मैं उत्तर भारत से आया हूं ।"
"तब हमारे साथ चलो।"
चारों ओर राक्षसों का घेरा । बीच में चारों प्रवासी । वे चलने लगे । धनंजय बोला - "महाराज ! खूब फंसे !"
" मित्र ! यश और कीर्ति की भूख, प्रशंसा की चाह सबको होती है। संभव है हम निर्विघ्न रूप से यहां से छिटक जायें ।"
शंबुक के ये राक्षस यही मान रहे थे कि ये प्रवासी महाराज शंबुक से मिलने आये हैं ।
चलते-चलते नदी का स्वच्छ और सुन्दर किनारा आ गया। बिंबिसार ने प्राकृत भाषा में सरदार से कहा - "वीरश्रेष्ठो ! हम पर कृपा करें हम रात भर वर्षा में भीगते आएं हैं । सारे वस्त्र गोले हैं। महाराज शंबुक से मिलने से पहले हम इनको सुखा दें तो उत्तम होगा। यहां हमें विश्राम करने की आज्ञा दें ।"
बिंबिसार की नम्र वाणी से सरदार का मन पिघला । और उसने कहा" जैसा आप चाहें वैसा करें ।"
सब वहीं रुक गये ।
सरदार ने अपने साथी से ईंधन लाने को कहा, जिसको जलाकर ये पथिक ताप ले सके ।
जो व्यक्ति ईंधन लेने गया था वह कुछ ही समय में गीले ईंधन के दो-चार टुकड़े ले आया ।
धनंजय ने भीगे वस्त्र सुखाने के लिए डाल दिये । ईंधन को देख धनंजय बोला - " महाशय ! इस गीले ईंधन में आग कैसे पकड़ेगी ।"
"भाई ! यह अग्निपत्री नाम की वनस्पति है । यह गीली ही जलती है, सूखी नहीं ।"
ऐसा ही हुआ । एक राक्षस सैनिक ने चकमक पत्थर से अग्नि निकाली । और सबके देखते-देखते वह अग्निपत्री जल उठी ।
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बिबिसार, धनंजय और दोनों परिचारक अग्नि का ताप लेने लगे । अग्नि का ताप तीव्र था । इसलिए रात भर का शीत भाग गया ।
लगभग तीन घटिका के पश्चात् सुखे वस्त्र पहनकर सब आगे बढ़े । अश्व भी नदी के किनारे हरी दूब खाकर मस्त हो गये थे । बिंबिसार ने इष्टदेव नमस्कार महामंत्र का स्मरण किया ।
नदी के किनारे-किनारे आधा कोस चले । नायक ने अपने दो साथी राक्षसों
से फल लाने को कहा। साथी जंगल में गये । ताजे फल ले आए। 'अनजाने फल नहीं खाने चाहिए' धनंजय ने कहा । पर सभी भूख से व्याकुल हो रहे थे । वे फल