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अलबेली आम्रपाली
ने स्पष्ट इनकार करते हुए कहा - "पिताश्री ! मेरे लिए दूसरों को निष्कासित करना ठीक नहीं है ।"
"यह विचार तो मुझे करना है । मैं मगधपति भले ही हूं पर तेरा बाप हूं, तू मेरा अतिप्रिय पुत्र है । मगधेश्वर भले ही हृदय से शून्य हों पर प्रसेनजित में धड़कता हृदयविद्यमान है ।"
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"आपकी व्यवस्था को मैं स्वीकार करता हूँ ।"
“पुत्र ! तेरे साथ नवजवान धनंजय रहेगा । वह अत्यन्त चतुर है । वह तेरा पूरा ध्यान रखेगा और जितना धन आवश्यक होगा उतने की वह व्यवस्था कर देगा । वह मेरा विश्वासी सुभट है और तुझे एक वादा करना पड़ेगा ।"
" वादा क्यों ? आपको आज्ञा देने का अधिकार है ।"
" वत्स ! तू जानता है कि मैं वृद्ध हो चुका हूं । न जाने कब यह शरीर ढल जाए । इसलिए तुझे अपनी सेवा के लिए मैं बुलाऊं तब तू अपने हजारों आकर्षणों को छोड़कर यहां उपस्थित हो जाना ।"
"आपके चरण स्पर्श कर मैं यह वादा करता हूं कि आपकी प्रत्येक आज्ञा मेरे लिए शास्त्र - वाक्य जैसी होगी ।" कहता हुआ बिम्बिसार पिताश्री के चरणों में गिर पड़ा ।
पिता ने पुत्र को उठाकर हृदय से लगाया और अपने गले में पहना हुआ अति मूल्यवान् रत्नहार उसके गले में डाल दिया ।
बिम्बिसार के नयन सजल हो गए। वृद्ध प्रसेनजित के नयनों से भी अश्रुधारा बह चली ।
पिता-पुत्र विलग हुए ।
रानी त्रैलोक्यसुन्दरी को राज्य सभा की बात ज्ञात हुई और वह अत्यन्त हर्षित हो गई। पर वह चिन्तातुर होने का अभिनय करने लगी ।
बिम्बिसार बहुत प्रसन्न था । किन्तु उसे ज्ञात नहीं था कि आज की राजाज्ञा के पीछे पिताजी का एक गुप्त रहस्य छुपा हुआ है ।
पूर्णिमा का दिन ।
सभी रानियां और राजपुरुष एक स्थान पर एकत्रित हुए । रानी त्रैलोक्यसुन्दरी ने पुत्र का मस्तक सूंघा और आशीर्वाद के साथ-साथ अपना रत्नजटित गलहार उसको पहना दिया ।
सभी अपर माताएं बिम्बिसार को आंसू भरे नयनों से विदा देने वहां आ
पहुंचीं ।
सुभट धनंजय और दो परिचारक दो अश्वों को तैयार कर खड़े थे ।
ठीक समय पर कुमार श्रेणिक एक हाथ में महाबिम्ब वीणा और कंधे पर