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४४ अलबेली आम्रपाली
मगध से निष्कासित करना होता है। यह आज्ञा सबके लिए समान रूप से लागू होती है । इस नियम के अनुसार कुशाग्रपुर में अनेक व्यक्तियों को निष्कासित होना पड़ा था। परन्तु राजगृह में यह पहला ही अवसर है। मुझे।"
"कृपावतार! आप चिन्तित न हों। पुत्र-प्रेम के वशीभूत होकर आप राजाज्ञा का अपमान न करें। मैं राजाज्ञा को सम्मान देने के लिए प्रतिपल तैयार हं । मगधेश्वर की न्यायप्रियता पर कोई कलंक न आने पाये।" बिम्बिसार ने नम्रतापूर्वक कहा।
राजा समझता था कि यह अभिनय केवल श्रेणिक की रक्षा के लिए था। फिर भी पुत्र के इन वचनों ने उसके दिल को दहला दिया।
राजसभा जुड़ी।
राजा ने कहा---"जो राजाज्ञा है, वह अखंड। उसमें किसी का भेद नहीं है। परन्तु मेरा हृदय आज'.." कहते-कहते राजा ने गद्गद होने का अभिनय किया।
सारी सभा मगधेश्वर के दर्द से व्याकुल हो उठी।
राजसभा में उपस्थित श्रेणिक ने कहा- “महाराज ! इस राजसभा में आप यह भूल जाएं कि आप मेरे पिताश्री हैं । मेरे प्रति ममता के वशीभूत होकर यदि आप राजाज्ञा को मान नहीं देंगे तो आपके यश में धब्बा लग जाएगा। कोई भी सुपुत्र अपने पिता के यश को कलंकित नहीं देखना चाहता।"
"श्रेणिक...!" "पिताश्री...!"
महाराज प्रसेनजित ने उत्तरीय से आंसू पोंछने का हृदयद्रावक अभिनय किया। कुछ क्षणों के बाद वे स्वस्थ होकर खड़े हुए और राजसभा की ओर देखते हुए बोले-“श्रेणिक ! तू वास्तव में धन्यवाद का पात्र है। तेरे शब्दों ने मेरे दिल में प्रेरणा जगायी है कि पुत्र-प्रेम से राजाज्ञा बड़ी होती है। आज मुझे अत्यन्त दुःखी हृदय से कहना पड़ रहा है कि राजाज्ञा के अनुसार तुझे अगली पूर्णिमा तक मगध का त्याग कर देना होगा।"
श्रेणिक ने बुलन्द आवाज में कहा-"मगधेश्वर की जय हो ! मगधपति की कीति समस्त पृथ्वी-मंडल पर विस्तृत हो।"
सभा विसर्जित हो गई। लोगों ने मगधेश्वर की न्यायप्रियता और श्रेणिक की निर्भयता की प्रशंसा
की।
__ज्यों-ज्यों पूर्णिमा का दिन निकट आ रहा था, महाराज प्रसेनजित का हृदय पीड़ा से भरता जा रहा था।
उन्होंने श्रेणिक के साथ अपने विश्वस्त व्यक्तियों को भेजना चाहा। श्रेणिक