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प्रस्तावना
५१
प्राचीन नहीं है। हमारा अनुमान है कि गुणभसे बहुत पहले विमलसूरिके ही समान किसी अन्य आचार्य ने भी जैनधर्मके अनुकूल सोपपत्तिक और विश्वसनीय स्वतन्त्र रूपसे रामकथा लिखी होगी और वह गुणभद्राचार्यको गुरुपरम्परा द्वारा मिली होगी । गुणभद्रके गुरु जिनसेन स्वामीने अपना आदिपुराण कत्रि परमेश्वरकी गद्य-कथाके आधारसे लिखा था- 'कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोधरितम् ।' और उसके पिछले कुछ अंशकी मूर्ति स्वयं गुणभट्टने भी की है जिनसेन स्वामीने कवि परमेश्वर या पवि परमेष्ठीको 'वागर्थसंग्रह' नामक समग्र पुराणका कर्ता बतलाया है। अतएव मुनिसुव्रत तीर्थंकरका चा श्री गुणभद्र ने उसीके आधारसे लिखा होगा जिसके अन्तर्गत रामकथा भी है । चामुण्डरायने कवि परमेश्वरका स्मरण किया है ।
गरज यह कि पउमचरिय और उधर पुराणकी रामकथाकी दो धाराएँ अलग-अलग स्वतन्त्र रूपसे निर्मित हुई और वे ही आगे प्रवाहित होती हुई हम तक आई हैं । इन दो धाराओं में गुरु-परम्परा भेद भी हो सकता है। एक परम्पराने एक धाराको अपनाया और दूसरीने दूसरीको ऐसी दशा में गुणभद्र स्वामीने पउमचरियकी धारासे परिचित होने पर भी इस ख्यालसे उसका अनुसरण न किया होगा कि वह हमारी गुरुपरम्पराकी नहीं है। यह भी सम्भव हो सकता है कि उन्हें पउमचरियके कथानककी अपेक्षा यह कथानक ज्यादा अच्छा मालूम हुआ हो ।
पउमचरियकी रचना वि० सं० २० में हुई है और यदि जैन धर्म दिगम्बर श्वेताम्बर भेदोंमें वि० सं० १३६ के लगभग ही विभक्त हुआ है जैसा कि दोनों सम्प्रदायवाले मानते हैं, तो फिर कहना होगा कि यह उस समयका है जब जैन धर्म अविभक्त था। हमें इस ग्रन्थ में कोई ऐसी बात भी नहीं मिली जिस पर दोमें से किसी एक सम्प्रदाय की गहरी छाप लगी हो और उससे हम यह निर्णय कर सकें कि विमल सूरि अनुक सम्प्रदाय के ही थे बल्कि कुछ बातें ऐसी हैं जो श्वेताम्बर परम्पराके विरुद्ध जाती हैं और कुछ दिगम्बर परम्परके विरुद्ध । इससे ऐसा मालूम होता है कि यह एक तीसरी ही दोनों के बीच की, विचारधारा है।
६. अन्य कथाओंमें भी विविधता
इकहतर पर्व में बलराम, श्रीकृष्ण, उनकी आठ रानियाँ तथा प्रथम्न आदिके भवान्तर बतलाये गये हैं इसमें जिनसेन [ द्वितीय] के हरिवंशपुराणसे कहीं-कहीं नाम तथा कथानक आदिमें भेद पाया जाता है। इसी प्रकार पचहत्तरवें पर्व में जीवन्धर स्वामीका चरित लिखा गया है परन्तु उसमें और आचार्य बाड़ीमसिंहके द्वारा लिखित गद्यचिन्तामणि या क्षत्रचूडामणिके कथानकमें काफी विविधता है। नाम आदिकविविधता तो है ही पर उनके चरित्र-चित्रण में भी विविधता है। इसका कारण यह हो सकता है कि वादी महिने पौराणिक कथानकको काम्यके ढोंचेमें डालनेके लिए परिष्कृत किया हो । आदि प्रकरणोंको छोड़ दिया हो । पर पात्रोंके नाम आदिमें भेद कैसे हो गया यह समझमें नहीं आता । ७. महापुराणका परिमाण
इस महापुराण प्रन्थका अनुष्टुप् इलोकोंकी संख्या में कितना परिमाण है ? इसके विषय में दो उल्लेख मिलते हैं- एक तो गुणभद्राचार्यने ही ग्रन्थके अन्त में २० हजार श्लोक प्रमाण बतलाया है और दूसरा उसी श्लोक पाठान्तर में २४ हजार श्लोक प्रमाण बतलाया गया है । इन दो उल्लेखों को देखकर विचार आया कि इसका एक बार निर्णय कर लेना ही उचित होगा। फलस्वरूप महापुराण प्रथम-द्वितीय भाग तथा उत्तर पुराणके श्लोकोंका निर्णय निम्न यन्त्रसे किया जाता है-
८. आदिपुराण प्रथम एवं द्वितीय भागका परिमाण
छन्द नाम
श्लोक संख्या
अनुष्टुप
हरिणी
मालिनी
क्रमांक
१.
२.
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१०४१२४३२
१६४६८
१०६४६०
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अक्षर
३३३१८४
१०८८
६३६०
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