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प्रस्तावना
विष्णुपुराण (४-५) में भी लिखा है कि जिस समय जनकवंशीय राजा सीरध्वज पुत्रलाभ के लिए यज्ञभूमि जोत रहे थे, उसी समय लाङ्गलके अग्रभागसे सीता नामक दुहिता उत्पन्न हुई।
बौद्धोंके जातक ग्रन्थ बहुत प्राचीन हैं जिनमें बुद्धदेवके पूर्वजन्मकी कथाएँ लिखी गई हैं। दशरथ जातकके अनुसार काशीनरेशकी सोलह हजार रानियाँ थीं। उनमेंसे मुख्य रानीसे राम-लक्ष्मण ये दो पुत्र और सीता नामकी एक कन्या हुई। फिर मुख्य रानीके मरने पर दूसरी जो पट्टरानी हुई उससे भरत नामका पुत्र हुआ। यह रानी बड़े पुत्रोंका हक मारकर अपने पुत्रको राज्य देना चाहती थी। तब इस भय से कि कहीं यह बड़े पुत्रोंको मार न डाले, राजाने उन्हें बारह वर्षतक अरण्यवास करनेकी आज्ञा दे दी और वे अपनी बहिनके साथ हिमालय चले गये और वहां एक आश्रम बनाकर रहने लगे। नौ वर्षके बाद दशरथकी मृत्यु हो गई और तब मन्त्रियोंके कहनेसे भरतादि उन्हें लेने गये परन्तु वे अवधिके भीतर किसी तरह लौटनेके लिए राजी नहीं हुए । इसलिए भरत, रामकी पादुकाओंको ही सिंहासन पर रखकर उनकी ओरसे राज्य चलाने लगे। आखिर बारह वर्ष पूरे होने पर वे लौटे, उनका राज्याभिषेक हुआ और फिर सीताके साथ विवाह करके उन्होंने सोलह हजार वर्ष तक राज्य किया। पूर्व जन्ममें राजा शुद्धोदन राजा दसरथ, उनकी रानी महामाया रामकी माता, राहुलमाता सीता, बुद्धदेव रामचन्द्र, उनके प्रधान शिष्य आनन्द भरत और सारिपुत्र लक्ष्मण थे। इस कथामें सबसे अधिक खटकने वाली बात रामका अपनी बहिन सीताके साथ विवाह करना है परन्तु इतिहास बतलाता है कि उस कालमें शाक्योंके राज्य. घरानों में राजवंशकी शुद्धता सुरक्षित रखनेके लिए भाईके साथ भी हिनका विवाह कर दिया जाता था। वह एक रिवाज था। इस तरह हम हिन्दू और बौद्ध साहित्यमें रामके कथाके तीन रूप देखते हैं एक वाल्मीकि रामायण का, दूसरा अद्भुत रामायण का और तीसरा बौद्ध जातकका ।
५.जैन रामायणके दो रूप इसी तरह जैन साहित्यमें भी राम-कथा के दो रूप मिलते हैं एक तो पउमचरिय और पद्मचरित का तथा दूसरा गुणभद्राचार्यके उत्तरपुराण का । पउमचरिय या पद्मपुराणकी कथा तो प्रायः सभी जानते हैं, क्योंकि जैन रामायणके रूपमें उसीकी सबसे अधिक प्रसिद्धि है, परन्तु उत्तर पुराणकी कथाका उतना प्रचार नहीं है जो उसके ६८ वें पर्वमें वर्णित है। उसका बहुत संक्षिप्त सार यह है.
राजा दशरथ काशी देशमें वाराणसीके राजा थे । रामकी माताका नाम. सुबाला और लक्ष्मणकी माताका नाम कैकेयी था। भरत शत्रुघ्न किसके गर्भमें आये थे, वह स्पष्ट नहीं लिखा। केवल 'कस्यां चित् देव्याम्' लिख दिया । सीता मन्दोदरीके गर्भसे उत्पन्न हुई थी, परन्तु भविष्यद्वक्ताओंके यह कहनेसे कि वह नाशकारिणी है, रावणने उसे मंजूषामें रखवाकर मरीचिके द्वारा मिथिला भेजकर जमीनमें गड़वा दिया। दैवयोगसे हलकी नोकमें उलझ जानेसे वह राजा जनकको मिल गई और उन्होंने उसे अपनी पुत्री के रूपमें पाल ली। इसके बाद जब वह विवाहके योग्य हुई, तब जनकको चिन्ता हुई। उन्होंने एक वैदिक यज्ञ किया और उसकी रक्षाके लिए राम-लक्ष्मणको आग्रह पूर्वक बुलवाया। फिर रामके साथ सीता को विवाह दिया। यज्ञके समय रावणको आमंत्रण नहीं भेजा गया, इससे वह अत्यन्त क्र हो गया और इसके बाद जब नारदके द्वारा उसने सीताके रूपकी अतिशय प्रशंसा सुनी तब वह उसको हर लानेकी सोचने लगा।
कैकेयीके हठ करने, रामको वनवास देने आदिका इस कथामें कोई जिक्र नहीं है। पंचवटी, दण्डकवन, जटायु, शूर्पणखा, खरदूषण आदिके प्रसंगोंका भी अभाव है। बनारसके पासके ही चित्रकूट नामक वनसे रावण सीताको हर ले जाता है और फिर उसके उद्धारके लिए लंकामें राम-रावण युद्ध होता है। रावणको मारकर राम दिग्विजय करते हुए लौटते हैं और फिर दोनों भाई बनारसमें राज्य करने लगते हैं। सीताके अपवादकी और उसके कारण उसे निर्वासित करनेकी भी चर्चा इसमें नहीं है। लक्ष्मण एक असाध्यरोगमें ग्रसित होकर मर जाते हैं और इससे रामको उद्वेग होता है। वे लक्ष्मणके पुत्र पृथ्वीसुन्दर को राजपद पर और सीताके पुत्र अजितंजयको युवराजपद पर अभिषेक करके अनेक राजाओं और अपनी सीता आदि रानियोंके साथ जिन-दीक्षा ले लेते हैं।
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