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महापुराणान्तर्गत उत्तरपुराण वस्तुतः देखने लायक ही होगा, मुझे तो बड़ी देर तक वहाँसे हटनेकी इच्छा ही नहीं हुई। किले के अन्दर इस समय एक सुन्दर जिनालय अवशिष्ट है वहाँ वाले इसे 'आवत मूस कंब गलवस्ति' कहते हैं। इसका हिन्दी अर्थ ६३ खम्भोंका जैन मन्दिर होता है। मेरा अनुमान है कि वह मन्दिर जैनोंका प्रसिद्ध शान्तिमन्दिर और इसके ६३ खम्भ जैनोंके त्रिषष्टिशलाकापुरुषोंका स्मृतिचिह्न होना चाहिये। मन्दिर बड़ा पुष्ट है और वस्तुतः सर्वोच्च कलाका एक प्रतीक है। खम्भोंका पालिश इतना सुन्दर है कि इतने दिनोंके बाद, आज भी उनमें आसानीसे मुख देख सकते हैं। मन्दिर चार खण्डोंमें विभक्त है। गर्भगृह विशेष बड़ा नहीं है। इसके सामनेका खण्ड गर्भगृहसे बड़ा है, तीसरा खण्ड इससे बड़ा है, अन्तिमका चतुर्थ खण्ड सबसे बड़ा है। इतना बड़ा है कि उसमें कई सौ आदमी आरामसे बैठ सकते हैं। छत और दीवालों परकी सुन्दर कलापूर्ण मूर्तियाँ निर्दय विध्वंसकोंके द्वारा नष्ट की गई हैं। इस मन्दिरको देखकर उस समय की कला, आर्थिक स्थिति और धार्मिक श्रद्धा आदिको आज भी विवेकी परख सकता है। खेद है कि बंकापुर आदि स्थानोंके इन प्राचीन महत्त्वपूर्ण जैन स्थानोंका उद्धार तो दूर रहा, जैन समाज इन स्थानों को जानती भी नहीं है।
४. रामकथाकी विभिन्न धाराएँ पध्नपुराण और उत्तर पुराणकी राम-कथामें पर्याप्त मतभेद है। यह क्यों और कब हुआ इसका विश्वस्त रूपसे कह सकना संभव नहीं दिखता। जब लोगोंको मालूम हुआ कि उत्तरपुराणका सम्पादन
और अनुवाद मेरे द्वारा हो रहा है तब कई विद्वानोंने इस आशयके पत्र लिखे कि आप राम-कथाके मतभेदकी गुत्थी अवश्य ही सुलझाइये । मेरी दृष्टि भी इस ओर बहुत समयसे थी। परन्तु अध्ययन करनेके बाद भी मैं इस परिणाम पर नहीं पहुंच सका कि आखिर यह मतभेद क्यों और कबसे चला। रामकथा की विभिन्न धाराओं पर प्रकाश डालते हुए श्रद्धय श्रीमान् नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास, नामक ग्रन्थमें प्रकाशित 'पद्मचरित और पउम चरिउ, नामक लेखमें 'राम कथा की विभिन्न धाराएँ' शीर्षक एक प्रकरण लिखा है जो कि इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। पाठकोंकी जानकारी के लिए मैं उसे यहाँ लेखकके ही शब्दोंमें उद्धत कर देना उचित समझता हूँ--
"रामकथा भारतवर्षकी सबसे अधिक लोकप्रिय कथा है और इस पर विपुल साहित्य निर्माण किया गया है। हिन्दू, बौद्ध और जैन इन तीनों ही प्राचीन सम्प्रदायों में यह कथा अपने-अपने ढंगसे लिखी गई है और तीनों ही सम्प्रदायवाले रामको अपना अपना महापुरुष मानते हैं।
अभी तक अधिकांश विद्वानोंका मत यह है कि इस कथाको सबसे पहले वाल्मीकि मुनिने लिखा और संस्कृतका सबसे पहला महाकाव्य (आदिकाव्य) वाल्मीकि रामायण है। उसके बाद यह कथा महाभारत, ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण, वायुपुराण आदि सभी पुराणों में थोड़े-थोड़े हेरफेरके साथ संक्षेपमें लिपि बद्ध की गई है। इसके सिवाय अध्यात्मरामायण, आनन्दरामायण, अद्भुत रामायण नामसे भी कई रामायण ग्रन्थ लिखे गये । वृहत्तर भारतके जावा, सुमात्रा आदि देशोंके साहित्यमें भी इसका अनेक रूपान्तरों के साथ विस्तार हुआ।
अद्भुत रामायणमें सीताकी उत्पत्तिकी कथा सबसे निराली है। उसमें लिखा है कि दण्डकारण्यमें गृत्समद नामके एक ऋषि थे। उनकी स्त्रीने प्रार्थना की कि मेरे गर्भसे साक्षात् लक्ष्मी उत्पन्न हो। इस पर उसके लिए वे प्रतिदिन एक घड़ेमें दूधको अभिमन्त्रित करके रखने लगे कि इतने में एक दिन वहाँ रावण आया और उसने ऋषि पर विजय प्राप्त करनेके लिए अपने वाणोंकी नोके चुभा-चुभाकर उनके शरीरका बूंद-बूंद खून निकाला और उसे घड़े में भर दिया। फिर वह बड़ा उसने मन्दोदरीको जाकर दिया और चेता दिया कि यह रक्त विषसे भी तीन है। परन्तु मन्दोदरी यह सोचकर उस रक्तको पी गई कि पति का मुझपर सच्चा प्रेम नहीं है और वह नित्य ही परस्त्रियोंमें रमण किया करता है, इसलिए अब मेरा मर जाना ही ठीक है । परन्तु उसके योगसे वह मरी तो नहीं, गर्भवती हो गई। पतिकी अनुपस्थितिमें गर्भ धारण हो जानेसे अब उसे छुपानेका प्रयत्न करने लगी और आखिर एक दिन विमानमें बैठकर कुरुक्षेत्र गई और उस गर्भको जमीनमें गाड़कर वापिस चली आई। उसके बाद हल जोतते समय वह गर्भजात कन्या जनकजीको मिली और उन्होंने उसे पाल लिया वही सीता है।
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